ठोस अपशिष्ट (Solid Waste)
ठोस अपशिष्ट वे पदार्थ होते हैं जो उपयोग के बाद निरर्थक एवं बेकार हो जाते हैं तथा जिनका कोई आर्थिक उपयोग नहीं होता है। जैसे-डिब्बे, काँच के सामान, प्लास्टिक, अखबार, आवासीय कचरा आदि। ठोस अपशिष्ट पूरे विश्व में एक समस्या बनकर उभरा है।
यह समस्या प्रत्येक देश में विद्यमान है क्योंकि इसके समुचित निस्तारण एवं डम्पिंग आवश्यकता होती है। ठोस अपशिष्टों का उत्पादन वास्तव में आधुनिक भौतिकवादी समाज की देन है। विकसित देशों की 'प्रयोग करो और फेंको संस्कृति' (Use and Throw Culture) ठोस अपशिष्ट प्रदूषण के लिये जिम्मेदार है।
ठोस अपशिष्ट पदार्थों के प्रकार (Type of Solid Waste Materials)
खनन अपशिष्ट
- मलबे का ढेर लग जाता है इसे अन्यत्र डंप करना पड़ता है
औधोगिक अपशिष्ट
- खोई (चीनी मिल से)
- तांबा एवं एल्युमिनियम (उद्योग से)
- रसायन उद्योग से निकला अपशिष्ट
- कागज उद्योग व अन्य
कृषि अपशिष्ट
- कृषि उत्पाद
- भूसा, फसलों की जड़े, तना
- गोबर, चारा
नगरपालिका अपशिष्ट
- घरेलू कचरा
- प्लास्टिक सामान
- अख़बार, कागज
- कांच का सामान
- वाहनों व् इलेक्ट्रॉनिक कचरा
- खाद्ध पदार्थ
चिकित्सा अपशिष्ट
- रासायनिक व जैविक अपशिष्ट
- शरीर के अंग
- जानवरों के मृत शरीर
मत्स्यउद्योग अपशिष्ट
- मछली क्षेत्र का कचरा
- विकसित देशों में कृषि जनित अपशिष्ट प्रमुख समस्या है जबकि विकासशील देशों में इन सामग्रियों का अनेक रूपों में उपयोग किये जाने से इनके निस्तारण की समस्या नहीं है।
भारत में ठोस अपशिष्ट (Solid Waste in India)
भारत के 3,00,000 से अधिक जनसंख्या वाले लगभग 50 बड़े नगर प्रतिदिन 4,00,000 टन से अधिक अपशिष्ट उत्पन्न करते हैं। शहरी क्षेत्र से लगभग 1,88,500 टन प्रति दिन (68.8 मिलियन प्रत्येक वर्ष) उत्पन्न होता है। औसत रूप से 500gm/व्यक्ति प्रतिदिन ठोस अपशिष्ट उत्पन्न होता है। भारतीय शहरों से उत्पन्न कचरों में कार्बन तथा जैविक पदार्थ, कम्पोस्ट बनाने योग्य पदार्थ, राख तथा धूल, पत्थर, कोयला, भूसा, सब्जियाँ, कागज, कपड़े, डिब्बे, पॉलिथीन आदि हैं।
भारत में 1947 में लगभग 6 मिलियन टन ठोस अपशिष्ट होता था जो अब बढ़कर लगभग 68 मिलियन टन हो गया है। अभी 30 प्रतिशत के लगभग ठोस अपशिष्ट को नगरपालिका द्वारा इकट्ठा नहीं किया जाता है। भारतीय शहरों में इसके परिवहन, लैंडफिल व निस्तारण की समस्या मौजूद है। औद्योगिक एवं चिकित्सा क्षेत्र से हानिकारक विषैले उत्पाद उत्पन्न होते हैं। भारत में लगभग 7 मिलियन टन खतरनाक अपशिष्ट प्रत्येक वर्ष उत्पन्न होता है। बहुत से खनिज पदार्थ, पेस्टिसाइड्स, रिफाइनिंग आदि वातावरण के लिये बहुत हानिकारक होते रसायन, पेपर, हैं। इनका मानव व पारितंत्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
चिकित्सा अपशिष्ट इलाज, डाइग्नोसिस, रिसर्च आदि क्रियाओं के समय उत्पन्न होता है। इसमें बहुत से रसायन व तत्त्वों का प्रयोग किया जाता है। इनका अच्छे से निस्तारण नहीं करने पर ये मानव स्वास्थ्य व पर्यावरण के लिये विकट समस्या पैदा करते हैं।
ठोस अपशिष्ट का प्रभाव (Effects of Solid Waste)
मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव
ठोस अपशिष्ट का मानव स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। ठोस अपशिष्ट का प्रभाव मानव पर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष दोनों रूप में हो सकता है।
- हवा के साथ रासायनिक ज़हर शरीर में पहुँच जाता है।
- जल में ठोस अपशिष्ट पानी के बहाव को रोकता है जिससे आस-पास के क्षेत्रों में बाढ़ आने का खतरा बढ़ जाता है।
- जन्म के समय बच्चों के वज़न की कमी (Low Birth Weight)
- कैंसर
- जन्मजात विकृति
- मस्तिष्क संबंधी रोग
- घबराहट व उल्टी
- खतरनाक अपशिष्ट साइट के पास रहने वालों में मधुमेह की समस्या अधिक पाई जाती है।
- पारा, आर्सेनिक, लेड आदि तत्त्व का ठोस अपशिष्ट के माध्यम से जल तंत्र में पहुँचकर मानव स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाना।
ठोस अपशिष्ट का जानवरों एवं जलीय जीवन पर प्रभाव
- ठोस अपशिष्ट के माध्यम से पारा जल में मिल जाता है। इस प्रकार दूषित जल के कारण मछलियों की मृत्यु होने लगती है।
- जलीय जीवों पर प्लास्टिक ट्यूब का अत्यधिक बुरा प्रभाव पड़ता है यह उनके संकटग्रस्त होने का बड़ा कारण है।
- एल्गी ब्लूम की घटना।
- जल एवं मृदा गुणवत्ता में कमी।
पर्यावरण पर प्रभाव
- अपशिष्ट के कारण मिथेन गैस पैदा होती है जो ग्रीन हाउस गैस है।
- लिटरिंग (Littering)- प्रदूषित कचरे के कारण अवैध डंपिंग।
- लीचिंग (Leaching)- यह एक प्रक्रिया है जिसमें ठोस अपशिष्ट मिट्टी एवं भूमिगत जल में पहुँचता है तथा उन्हें दूषित करता है।
ठोस अपशिष्ट समस्या के कारक
तीव्र नगरीकरण
- नगरीय विकास
- नए नगरों का निर्माण व विकास
- औद्योगिक वृद्धि
जीवन पद्धति (Lifestyle) में परिवर्तन
- जीवन स्तर अनुचित
- क्रय शक्ति में वृद्धि
- खाने की आदतों में बदलाव (वेस्ट ज़्यादा)
अपर्याप्त सरकारी नीतियाँ
- लागू करने के स्तर पर कमी (Lacking in Enforcement Level)|
- नियमन प्रक्रिया में एकरूपता का अभाव।
- व्यापक कानून एवं विनियमन का न होना।
- निपटान क्षेत्र में कमी।
तीव्र जनसंख्या वृद्धि
- जनसंख्या वृद्धि
- जनसंख्या का आंतरिक एवं बाह्य प्रवासन (Migration)
सार्वजनिक उदासीनता
- लोगों का ध्यान न देना। .
- जनता द्वारा यह सोचना कि इसकी सारी ज़िम्मेदारी सरकार की है।
- लोगों की अपशिष्ट उत्पन्न करने की प्रवृत्ति और इसे कहीं भी फेंकने की आदत।
- अपशिष्ट परिहार/कमी, अलगाव आदि के महत्त्व में कमी।
- अपशिष्ट के उचित संग्रहण में कमी।
ठोस अपशिष्ट का उपचार (Treatment of Solid Waste)
ठोस अपशिष्ट के उपचार के बहुत से तरीके हैं, उनमें प्रमुख इस प्रकार हैं-
भूमि भराव (Land Fills)
यह सामान्यत: नगरीय क्षेत्रों में अवस्थित गड्ढेनुमा भाग होता है। जिसमें ठोस अपशिष्ट कचरे को लाकर डंप किया जाता है। पूरा भर जाने के बाद इसे मिट्टी से भर दिया जाता है।
लाभ
- यह एक सस्ता विकल्प है।
- स्थानीय लोगों के लिये रोज़गार की उत्पति करता है।
- अन्य निपटान तरीकों की तुलना में बहुत प्रकार के अपशिष्ट का निपटान एक साथ ही किया जाता है।
- इससे निकलने वाली मिथेन गैस से ऊर्जा बनाई जा सकती है।
हानि
- यह क्षेत्र बहुत प्रदूषित व बदबूदार होता है।
- इससे स्थानीय क्षेत्र में वायु प्रदूषण होता है। इससे निकलने वाली गैस वैश्विक तापन में योगदान देती है।
- भूमिगत जल विषैला हो जाता है।
- एक बार इस क्षेत्र का उपयोग होने पर पुनः इसका प्रयोग संभव नहीं है।
भस्मीकरण (Incineration)
भस्मीकरण एक निपटान विधि है जिसमें अपशिष्ट पदार्थों का दहन शामिल है। भस्मीकरण में ठोस अपशिष्ट को 1000°C पर जलाया जाता है। ठोस अपशिष्ट राख, गैस व ऊर्जा में परिवर्तित हो जाता है। इससे उत्पन्न ऊर्जा का प्रयोग बिजली बनाने में किया जाता है। इसे खतरनाक कचरा (Hazardous Waste) (जैसे जैविक चिकित्सा अपशिष्ट) निपटाने के लिये एक व्यावहारिक पद्धति के रूप में मान्यता प्राप्त है। परंतु गैसीय प्रदूषकों के उत्सर्जन के कारण भस्मीकरण अपशिष्ट निपटान की पद्धति विवादास्पद है।
लाभ
- इसके लिये बहुत कम भूमि की आवश्यकता होती है।
- अपशिष्ट के भार में 25 प्रतिशत की कमी आ जाती है।
- इससे स्थानीय जल निकायों एवं भौमजल पर प्रदूषण का खतरा नहीं होता है
- इसे आवासीय क्षेत्र के निकट स्थापित किया जा सकता है।
- उत्पन्न गैस का प्रयोग बिजली बनाने में किया जाता है।
हानि
- महँगी तकनीक।
- कुशल श्रमिक की आवश्यकता।
- हवा में निकलने वाले रसायन ओज़ोन परत को नुकसान पहुँचा सकते हैं तथा ये उच्च प्रदूषक हो सकते हैं।
- उच्च ऊर्जा की आवश्यकता।
समुद्री डंपिंग (Ocean Dumping)
इसमें अपशिष्ट को समुद्री तट (मुख्यतः समुद्री मग्न तट) पर डंप किया जाता है। मुख्य रूप से कचरा, अपशिष्ट सामान व रसायन एवं नाभिकीय कचरे को डाला जाता है। इससे जलीय पारितंत्र एवं मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है।
जैविक पुनर्प्रसंस्करण (Biological Reprocessing)
इस प्रक्रिया में पौधे, खाद्य अपशिष्ट एवं कागज उत्पाद को अपघटक के माध्यम से कार्बनिक पदार्थों में परिवर्तित किया जा सकता है। इस प्रक्रिया में अपशिष्ट को तब तक कन्टेनर में रखा जाता है जब तक कि वह अपघटित न हो जाए।
ताप-अपघटन (Pyrolysis)
इस प्रक्रिया में ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में अथवा ऑक्सीजन की नियंत्रित मात्रा में अपशिष्ट पदार्थों का दहन किया जाता है। कार्बनिक पदार्थों के ताप अपघटन द्वारा चारकोल, टार, एसिटोन एवं ईंधन गैस आदि का उत्पादन होता है। भारत के बहुत से शहरों में इस प्रकार के संयंत्र लगे हुए हैं।
खाद निर्माण (Composting)
यह एक जैविक प्रक्रिया है जिसमें जीवाणु एवं कवक जैसे सूक्ष्म जीवों द्वारा कार्बनिक अपशिष्टों को ऑक्सीजन की उपस्थिति में ह्यूमस में रूपांतरित कर दिया जाता है। अंतिम उत्पाद कार्बन एवं नाइट्रोजन समृद्ध होता है एवं पौधों के विकास के लिये उपयुक्त होता है।
वर्मीकल्चर (Vermiculture)
इसके अंतर्गत अपशिष्ट पदार्थों में केंचुए (Earthworm) को मिलाया जाता है जो इन पदार्थों को तोड़कर एवं उसमें मलोत्सर्ग द्वारा इसे पोषक तत्त्वों से समृद्ध बनाता है।
न्यूनीकरण (Reduce)
मानव को अपनी आवश्यकता के अनुसार ही पदार्थ का उपयोग करना चाहिये। इसके लिये सामानों को उधार लेकर, कम-से-कम पैकिंग तथा सेकंड हैंड उत्पादों का उपयोग करना चाहिये।
पुनर्चक्रण (Recycle)
पुनर्चक्रण प्रक्रिया के माध्यम से पदार्थों को नए उत्पाद में बदलना चाहिये। इसमें पुराने उत्पादों से नए उत्पादों का निर्माण होता है। काँच, एल्युमिनियम, कागज, प्लास्टिक उत्पादों का पुनर्चक्रण किया जा सकता है।
पुनः उपयोग (Reuse)
सामानों को फेंकने के स्थान पर इनका पुनः उपयोग करना चाहिये।
अपशिष्ट न्यूनीकरण चक्र (Waste Minimisation Circle)
अपशिष्ट न्यूनीकरण चक्र लघु एवं मध्यम उद्योगों के क्लस्टर को अपशिष्ट न्यूनीकरण में सहायता प्रदान करता है। इसे विश्व बैंक द्वारा सहायता प्रदान की जा रही है तथा पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय इसके क्रियान्वयन के लिये नोडल मंत्रालय है। इस परियोजना को राष्ट्रीय उत्पादकता परिषद् (National Productivity Council) की सहायता से क्रियान्वित किया जा रहा है।
इसके अलावा इस पहल का उद्देश्य प्रदूषण उपशमन पर नीतिगत वक्तव्य (1992) के उद्देश्यों से अवगत कराना भी है, जिसमें यह कहा गया है कि सरकार जनता को पर्यावरणीय खतरों, संसाधनों के अवनयन से स्वास्थ्य एवं अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों एवं प्राकृतिक संसाधनों की वास्तविक आर्थिक कीमत के संबंध में जागरूक करे।
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