हरित गृह प्रभाव क्या है? greenhouse effect in hindi | हरित गृह प्रभाव किसे कहते है | कारण | दुष्प्रभाव | harit grah prabhav

हरित गृह प्रभाव (Green house effect)

हरित गृह एक भवन की तरह होता है जो शीशे की दीवारों से बना होता है। ठंडी जलवायु वाले क्षेत्रों या ठंडे देशों में इन हरित गृहों में पौधों को उगाने का कार्य किया जाता है। बाहरी तापमान के निम्न रहने के बावजूद हरित गृहों के तापमान में वृद्धि होती रहती है।
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पृथ्वी भी एक हरित गृह की भाँति कार्य करती है। पृथ्वी की हरित गृह गैसें, जो पृथ्वी के निचले वायुमंडल में पाई जाती हैं, पृथ्वी को एक कंबल की तरह लपेटे रहती हैं एवं यह हरित गृह के शीशे की तरह कार्य करती है अर्थात् वह सौर्य विकिरण की आने वाली लघु तरंगदैर्ध्य को तो आने देती है परंतु पृथ्वी से लौटती दीर्घ तरंगदैर्ध्य विकिरण (पार्थिव विकिरण) को अवशोषित कर लेती है। यह समायोजन ताप तरंगों को नियंत्रित रूप से पृथ्वी की सतह से अंतरिक्ष के बाह्य पटल में भेजती है। इससे पृथ्वी के ऊपर आवरण सा बन जाता है जिस कारण पृथ्वी गरम एवं रहने योग्य रहती है। अतः एक प्राकृतिक ग्रीन हाउस पृथ्वी की सतह को गरम रखता है तथा उसे एक निश्चित तापमान प्रदान करता है।
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प्राकृतिक ग्रीन हाउस प्रभाव (Natural greenhouse effect)

हरित गृह गैसें जो कि वातावरण में प्राकृतिक रूप से पाई जाती है, प्राकृतिक ग्रीन हाउस प्रभाव हेतु ज़िम्मेदार होती हैं। इस प्रक्रिया के द्वारा पृथ्वी की सतह गरम एवं रहने योग्य बनती है। प्राकृतिक ग्रीन हाउस प्रभाव पृथ्वी को माध्य तापमान (15°C) पर गरम रखता है। ग्रीन हाउस गैसों की अनुपस्थिति में पृथ्वी का माध्य तापमान –20°C तक गिर सकता है। मानवजनित ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ता है एवं तापमान में वृद्धि करता है। वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की सांद्रता में बढ़ोतरी से अवरक्त विकिरण ज़्यादा अवशोषित होगी, जिससे ग्रीन हाउस में बढ़ोतरी होगी।

हरित गृह प्रभाव के कारण

हरित गृह गैसें (Green house gases)

हरित गृह गैस का अर्थ वातावरण की उन गैसों से है जो प्राकृतिक एवं मानवजनित दोनों होती हैं। ये अवरक्त विकिरण (Infrared radiation) को अवशोषित करती हैं एवं पुनः छोड़ती हैं।
जलवाष्प तथा CO2 वायुमंडल में पाई जाती जाने वाली गैसों में प्रचुर मात्रा में पाई जाती है तथा किसी क्षेत्र में अवरक्त विकिरणों (12 से 20 μm) को ज्यादा-से-ज्यादा अवशोषित करती हैं। इसके साथ ही अन्य प्रमुख ग्रीन हाउस गैसें हैं-
  • कार्बन डाइऑक्साइड (CO2)
  • मीथेन (CH4)
  • नाइट्रस ऑक्साइड (N2O)
  • हाइड्रोफ्लूरो कार्बन (HFCs)
  • परफ्लूरो कार्बन (PFCs)
  • सल्फर हेक्सा फ्लोराइड (SF6)
  • जलवाष्प

कार्बन डाइऑक्साइड (Carbon Dioxide)

कार्बन डाइऑक्साइड गैस वैश्विक तापन में 60% की भागीदारी करती है। यह एक प्राथमिक हरितगृह गैस है जो कि मानवीय क्रियाओं द्वारा उत्सर्जित होती है। कार्बन डाइऑक्साइड की वातावरण में प्राकृतिक रूप से पृथ्वी के कार्बन चक्र (कार्बन का वातावरण, समुद्र, मृदा वनस्पति एवं जीवों के बीच प्राकृतिक प्रवाह) के रूप में मौजूदगी रहती है। यह एक प्रमुख ताप अवशोषक गैस है। वातावरणीय कार्बन डाइऑक्साइड में कोई परिवर्तन वातावरण के तापमान को परिवर्तित कर सकता है।
यह सिद्ध हो चुका है कि भूगर्भीय भूतकाल में वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की प्रचुर मात्रा थी। सतत ज्वालामुखीय विस्फोट के कारण बहुत सी गैस उत्पन्न हुई। इन गैसों के मिश्रण के कारण वायुमंडल से ताप निकल नहीं पाता था। फलतः पृथ्वी का वायुमंडल हमेशा गर्म रहता था। किंतु जब पृथ्वी पर सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति हुई तो ये कार्बन डाईऑक्साइड, सूर्य के किरण तथा नाइट्रोजन का उपयोग करने लगे। वे ऑक्सीजन को वायु मंडल में उत्सर्जित करने लगे। करोडों वर्ष के बाद पृथ्वी पर पेड़ उगे। ये पेड़-पौधे कार्बन डाईऑक्साइड लेने लगे। कार्बन डाईऑक्साइड से कार्बन ग्रहण किया जिससे पौधों के तनों पत्तियों का निर्माण हुआ। इसके बाद हरे भरे जंगल अस्तित्व में आए।
किंतु यह तो व्यापक तथ्य का एक अंग है। कार्बन डाईऑक्साइड का उपयोग प्रकाश संश्लेषण के दौरान किया जाता है। किंतु पौधों के सूखने, काटने, जलाने अथवा पशुओं के द्वारा खाए जाने पर गैस पुनः निष्कासित हो जाते हैं। ऐसी ही प्रक्रिया समुद्रों में भी घटित होती हैं। करोड़ों समुद्री जीव जिन्हें प्लैंकटन के नाम से जाना जाता है वे भी अपने निर्माण व विकास में कार्बन डाईऑक्साइड का उपयोग करते हैं। पृथ्वी के दो तिहाई भाग में स्थित सागर में इनके जन्म, उपयोग तथा मृत्यु अहर्निश होते रहते हैं। संक्षेप में, इस प्रक्रिया में कितनी मात्रा में कार्बन की प्राप्ति या क्षति होती है, यह कहना मुश्किल है। किंतु इतना तो तय है कि जब ये जीव मरते हैं तो कुछ कार्बन वायुमंडल में आ ही जाता है। इन जीवों के शरीर मृत्योपरांत समुद्र की तलहटी पर आ जाते हैं और कार्बन तलहटी के कीचड़ में मिल जाता है। आकलन से पता चलता है कि समुद्र कार्बन डाईऑक्साइड को अवशोषित करने के साथ ही इसका एक तिहाई भाग वायुमंडल में छोड़ देता है।
  • कार्बन डाईऑक्साइड को ग्रहण कर उसे कार्बन में बदलने की करोड़ों वर्षों से चल रही इस प्रक्रिया के कारण पृथ्वी के वायुमंडल में गैसों की स्थिति में परिवर्तन आ गया है। यदि वायुमंडल में यह परिवर्तन नहीं हुआ तो आज वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की प्रचुर मात्रा विद्यमान होती जिससे वर्तमान में पृथ्वी का तापमान जितना है उससे 45°C (113°F) अधिक होता।
  • ज्यों-ज्यों जीवन का विकास हुआ ऑक्सीजन की मात्रा में बढ़ोत्तरी तथा कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा में कमी आती गई। मानव सहित प्राणी अपने जीवन के अस्तित्व के लिए ऑक्सीजन लेते हैं और कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ते हैं। एक बार जब यह संतुलन प्राप्त किया गया तो विगत शताब्दियों के जैसी जलवायु अस्तित्व में आयी। जब आदमी ने सीधा चलना सीखा तथा वायुमंडल में नाइट्रोजन सबसे अधिक मात्रा में थी। उस समय तक वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बहुत सीमित हो गई थी और ऑक्सीजन की प्रतिशतता 21 हो गई।
  • वस्तुतः कार्बन डाईऑक्साइड की वायुमंडल में प्रतिशतता घटकर 0.03 हो गई। विगत दो सौ वर्षों में इसका आयतन वायुमंडल में दस लाख में 280 भाग के अनुपात में रहा था। ग्रीन हाऊस प्रभाव के बिना इस गैस के कारण वायुमंडल गर्म तो हुआ किंतु इसका ताप असहनीय नहीं हुआ। विगत दो सौ वर्षों में मानवीय गतिविधियों के कारण वायुमंडल के प्रति दस लाख भाग आयतन में कार्बन डाईऑक्साइड का अंश 280 से बढ़कर सन् 1995 तक 360 हो गया। औद्योगिक क्रांति से आजतक इसकी यात्रा में 27% की वृद्धि हुई है। विकासशील देशों में जैसे ही औद्योगिक गतिविधियां बढ़ती हैं वैसे ही उसके वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बढ़ने लगती है। वर्तमान में प्रति दस लाख में प्रतिवर्ष 3 अंश की वृद्धि होती है।

मीथेन (Methane)

वैश्विक तापन में यह गैस 20% का योगदान करती है। यह वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) की अपेक्षा काफी कम मात्रा में मौजूद होती है परंतु इसका महत्त्व अधिक है क्योंकि मीथेन पृथ्वी द्वारा उत्सर्जित अवरक्त किरणों के अवशोषण में CO2 से औसतन 20 से 30 गुना ज्यादा सक्षम है। मीथेन अपूर्ण अपघटन (Incomplete Decomposition) का उत्पाद है एवं अनॉक्सी दशाओं (Anaerobic Conditions) में मीथेनोजन जीवाणुओं द्वारा उत्पन्न होती है। मीठे जल वाली आर्द्रभूमि से मीथेन का उत्सर्जन होता है क्योंकि कार्बनिक पदार्थों का ऑक्सीजन के अभाव में अपघटन होने से मीथेन का उत्पादन होता है।
दीमक सेल्युलोज का पाचन करते हैं एवं इस क्रम में मीथेन का उत्पादन करते हैं। बाढ़ग्रस्त धान के खेतों में तथा कच्छ क्षेत्रों में मीथेनोजन जीवाणुओं द्वारा अनॉक्सी क्रिया के फलस्वरूप मीथेन का उत्पादन होता है। चरने वाले जानवर, जैसे गाय, बैल एवं भेड़ द्वारा भी मीथेन गैस उत्पन्न होता है। कोयला खनन एवं तेल तथा प्राकृतिक गैस हेतु खनन मीथेन उत्सर्जन के अन्य स्रोत हैं।
वायुमंडल में मिथेन की मात्रा बहुत कम है। इसलिए इसका आकलन प्रति दस लाख पर नहीं प्रति सौ करोड़ अंश आयतन पर किया जाता है। प्रति अंश आयतन के हिसाब से वायुमंडल को यह कार्बन डाईऑक्साइड की तुलना में 21 गुना ज्यादा गर्म करता है। विगत दो सौ वर्षों में कार्बन की मात्रा में जहां 27% की वृद्धि हुई है वहीं मिथेन में 145% की। प्रति सौ करोड़ अंश आयतन में यह 145 से बढ़कर 700 अंश हो गया है। ग्रीन हाऊस प्रभाव बढ़ाने में इसका योगदान 15 से 20% रहा है।
  • मिथेन की मात्रा में तीव्र वृद्धि के बावजूद वैज्ञानिक कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि की तुलना में इसकी वृद्धि से कम चिंतित है। इसका प्रमुख कारण यह है कि कार्बन डाईऑक्साइड वायुमंडल में दीर्घकाल तक ज्यों का त्यों रहता है। यह 50 से लेकर 200 वर्षों तक अस्तित्व में रहता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि यदि वायुमंडल में एक बार कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि होती है तो फिर उसे कम करना कठिन हो जाता है। वहीं दूसरी ओर रसायनिक प्रतिक्रियाओं द्वारा मिथेन 12-17 वर्ष में नष्ट हो जाता है। अतः मिथेन से होने वाली संभावित क्षति को कम करना आसान है। मिथेन पर कम ध्यान देने की वजह यह है कि इसकी उत्पादन प्रक्रिया जटिल और इसके उत्पादन को राजनीति इच्छा शक्ति के बावजूद नियंत्रित करना कठिन है।
  • औद्योगिक क्रांति की शुरुआत के साथ ही वायुमंडल में मिथेन की मात्रा में वृद्धि होने लगी और जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ इसकी मात्रा में वृद्धि होती गई। यदि मानवीय गतिविधियों के कारण हो रही इस वृद्धि पर अंकुश नहीं लगाया गया तो स्थिति बदतर होती जाएगी।
  • मिथेन की मात्रा में वृद्धि होने के अन्य कारण भी हैं। धान के उत्पादन के कारण मिथेन की मात्रा में वृद्धि होती है। वैज्ञानिक कृषि की नई तकनीक खोजने में व्यस्त हैं जिससे उत्पादन प्रक्रिया में मिथेन की मात्रा को नियंत्रित किया जा सके।
  • गड्ढों में कूड़ा-कचरा के सड़ने से भी मिथेन उत्पन्न होता है। यह मिथेन निष्कासन तथा जीवाश्म ईंधन जलाने की आवश्यकता को कम करता है। कोयला खान से भी मिथेन निकलता है।

नाइट्रस ऑक्साइड (N2O)

नाइट्रस ऑक्साइड पृथ्वी के नाइट्रोजन चक्र के रूप में वातावरण में प्राकृतिक रूप से मौजूद रहती है। यह गैस वैश्विक तापन हेतु 6% ज़िम्मेदार है। नाइट्रस ऑक्साइड को लाफिंग गैस (Laughing Gas) भी कहा जाता है।
नाइट्रस ऑक्साइड को लाफिंग गैस भी कहा जाता है। इसका उपयोग बेहोश करने में किया जाता है। यह भी एक ग्रीन हाऊस गैस है। यद्यपि ग्रीन हाऊस प्रभाव में इसकी भूमिका उतनी बड़ी नहीं है फिर भी वायुमंडल में इसका अस्तित्व 120 वर्षों तक रहता है। जहां औद्योगिक क्रांति से पूर्व यह वायुमंडल के आयतन में प्रति सौ करोड़ में 310 था, वहीं आज यह 13% है। परंतु इसके बढ़ने के सही कारण का पता नहीं चल पाया है। लकड़ी तथा अन्य ईंधन का दहन इसके लिए अंशतः जिम्मेवार है। अमोनिया के उर्वरक उत्पादन में प्रयोग से गैस का बनना भी वायुमंडल में इसकी वृद्धि का कारण है। विभिन्न औद्योगिक प्रक्रियाओं में अम्ल के उत्पादन से भी नाइट्रस ऑक्साइड का निर्माण होता है। इसकी मात्रा को वायुमंडल में रोकने के लिए आधे कृत्रिम स्रोतों को बंद करना होगा। यह मुख्य मुद्दा नहीं है, मुख्य मुद्दा है इसकी मात्रा को कम करने हेतु प्रभावी निर्णय लेने के लिए राजनीतिज्ञों के पास पर्याप्त सूचना का अभाव। भविष्य में यह बात स्पष्ट होगी कि ग्रीन हाऊस प्रभाव में यह गैस कितनी बड़ी भूमिका निभाएगी।

हाइड्रोफ्लूरो कार्बन (HFCs)

हाइड्रोफ्लूरोकार्बन को ओजोन विघटनकारी गैसों, CFCs एवं HCFCs के प्रतिस्थापन के रूप में लाया गया था। हालाँकि, इस गैस द्वारा ओज़ोन का विघटन नहीं होता परंतु यह एक प्रबल हरित गृह गैस है एवं जलवायु परिवर्तन में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। चूँकि इसके द्वारा वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी होती है। अतः इसे क्योटो प्रोटोकॉल द्वारा विनियमित किया जाता है न कि मांट्रियल प्रोटोकॉल द्वारा। HFCs की दीर्घ वातावरणीय जीवन अवधि होती है एवं इसमें उच्च वैश्विक तापन क्षमता (GWPs) होती है। ये शीतप्रशीतक, एरोसॉल नोदक, विलायक एवं अग्निशमन यंत्रों में प्रयोग किये जाते हैं।

परफ्लूरो कार्बन (PFCs)

ये यौगिक विभिन्न औद्योगिकी प्रक्रियाओं के सह-उत्पाद (By-products) होते हैं जो एल्यूमिनियम उत्पादन एवं अर्द्धचालकों के निर्माण से जुड़े होते हैं। HFCs की तरह PFCs की भी दीर्घ वातावरणीय जीवन अवधि एवं उच्च वैश्विक तापन क्षमता होती है।

सल्फर हेक्सा फ्लोराइड (SF6)

SF6 मैग्नीशियम प्रक्रियाओं एवं अर्द्धचालकों के निर्माण में प्रयुक्त होती है। साथ ही यह रिसाव खोज (Leak Detection) हेतु प्रयोग में आने वाली खोजी गैस है। SF6 का उपयोग विद्युत वितरण उपकरणों, जिसमें सर्किट ब्रेकर भी आते हैं, में होता है। SF6 की वैश्विक तापन क्षमता 22,800 होती है जो इसे IPCC के अनुसार प्रबल हरित गृह गैस बनाता है।

क्लोरोफ्लोरो कार्बन

क्लोरोफ्लोरो कार्बन से ग्रीन हाऊस प्रभाव में वृद्धि एक कृत्रिम घटना है। यह गैस कई कार्यों में प्रयुक्त होता है किंतु इसके विनाशकारी परिणाम अब प्राप्त होने लगे हैं। सन् 1930 में इसके निर्माण से पूर्व यह गैस अस्तित्व में नहीं था। इसके निर्माण के पीछे शुभ उद्देश्य था। उद्योग जगत के लिए यह वर्षों तक लाभकारी रहा किंतु अब इसके घातक परिणाम मिलने लगे हैं।
इसका निर्माण अत्यंत संतुलित, विष रहित अज्वलनशील गैस जिसे दबाव पर द्रवित किया जा सकता है, के रूप में किया गया। इसका उपयोग रेफ्रीजरेटर, एयर कंडिशनिंग और एरोसोल स्प्रे में किया जाता है। घरेलू रेफ्रिजरेटर में इसका प्रयोग सर्वप्रथम वरदान सिद्ध हुआ। विभिन्न प्रयोग के लिए इसके विभिन्न रूपों का निर्माण हुआ। उदाहरणस्वरूप- क्लोरोफ्लोरो कार्बन 11 तथा 12 फोम रबड़ में ब्लोइंग एजेंट के रूप में तथा फर्निचर में पोलिथीन फोम में इसका प्रयोग किया जाता है।
क्लोरोफ्लोरो कार्बन का निर्माण हमारे जीवन को सरल बनाने के लिए किया गया था किंतु वास्तव में इससे मानव जीवन में जटिलता बढ़ी है। स्वास्थ्य और खाद्यान्न उत्पादन पर इसका बुरा असर पड़ा है। इससे ओजोन परत को क्षति पहुंच रही है तथा वैश्विक तापवृद्धि में यह सहायक है। सन् 1974 में पहली बार पता चला कि इससे ओजोन परत को क्षति पहुंची किंतु उस समय यह बात सिर्फ चर्चा तक सीमित थी। सन् 1978 में अमरीका ने एरोसोल में इसके प्रयोग पर पाबंदी लगा दी। किंतु जब सन् 1985 में पहली बार अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन परत में छिद्र पाया गया तब असली कार्रवाई शुरू हुई। प्रारंभ में यह विश्वास ही नहीं होता था कि रेफ्रिजरेटर और एरोसोल में प्रयोग किया जाने वाला क्लोरोफ्लोरो कार्बन ओजोन परत को इस हद तक क्षति पहुंचाएगा। ओजोन परत की सुरक्षा अत्यंत आवश्यक है क्योंकि सूर्य से निकलने वाली पराबैगनी किरणों के दुष्प्रभाव से यह हमारी रक्षा करता है।
विज्ञान के इस घटना ने राजनीतिज्ञों को सम्मेलन करने पर विवस कर दिया। यह घोषित किया गया कि ओजोन परत की क्षति से जनजीवन को खतरा है। दोनों ध्रुवों में आजोन परत के अध्ययन से पता चलता है कि प्रत्येक वर्ष ओजोन परत पतला होते जा रहा है। परिणामत: संपूर्ण विश्व में यह परत पतला होते जा रहा है।
विश्व की सरकारों ने सक्रियता दिखाई और सन् 1997 में मांट्रियल समझौते पर हस्ताक्षर हुआ। ओजोन परत को क्षति पहुंचाने वाले कारकों की पहचान की गई और उसके स्थान पर ओजोन मित्र गैसों के प्रयोग को बढ़ावा देने की बात कही गई है।
किंतु क्लोरोफ्लोरो कार्बन से पर्यावरण को होने वाली क्षति के कारण वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ दोनों का ध्यान इस ओर गया। यह भी मान लिया गया है कि क्लोरोफ्लोरो कार्बन अपने आप में वैश्विक तापवृद्धि करने वाला गैस है। क्लोरोफ्लोरो कार्बन में उपस्थित क्लोरिन से ओजोन परत की ऊपरी सतह को सबसे अधिक नुकसान होने का खतरा है।
  • भूमि की सतह पर ओजोन खतरनाक गैस माना जाता है क्योंकि इससे मानव का फेफड़ा प्रभावित होता है तथा वनस्पति जगत के लिए यह विषैला पदार्थ है। इसकी मात्रा में आवश्यकता से अधिक वृद्धि हो रही है। निचले स्तर पर ओजोन के निर्माण में कार्बन मोनो ऑक्साइड और नाइट्रोजन के ऑक्साइड (कार के ईंधन के दहन से), मिथेन तथा अन्य हाइड्रोकार्बन सहायक हैं। सूर्य की किरणों के साथ वाहन व अन्य मानवीय गतिविधियों के कारण उत्सर्जित गैसों से क्षति अधिक पहुंचती है। गर्म दिनों में इसका दुष्प्रभाव और भी घातक होता है।
  • क्लोरोफ्लोरो कार्बन का दीर्घकाल में वैश्विक तापवृद्धि पर कितना वास्तविक असर पड़ेगा, यह स्पष्ट नहीं है। सर्वप्रथम 1995 में ओजोन परत को क्षति पहुंचाने वाले पदाथों की मात्रा का वायमंडल में उत्सर्जन पर रोक लगाया गया जिसका दीर्घकालीन असर परिलक्षित होगा। इन विनाशकारी तत्वों से भूमंडल की रक्षा करने तथा ओजोन परत को सुरक्षित करने में कम से कम पचास वर्ष का समय लग सकता है। किंतु जलवायु परिवर्तन पर इसके असर की समीक्षा बड़ी सावधानी से करनी होगी।
  • एक उपयोगी पदार्थ को प्रतिबंधित करने में कठिनाई है। क्लोरोफ्लोरो कार्बन कई अर्थों में बहुत उपयोगी है। यदि उसका विकल्प ढूंढ लिया जाता है तो उसके भी कई अज्ञात दुष्परिणाम हो सकते हैं।
  • समस्या के समाधान हेतु निर्माताओं और राजनीतिज्ञों के बीच अभियान चलाने संबंधी कोई विवाद नहीं है। यह एक नई पहल है। पर्यावरणवादी सिर्फ समस्या को गिनाने और इसे तूल देने में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। यह एक अच्छा संकेत है। इससे विश्व को क्लोरोफ्लोरो कार्बन तथा वैश्विक तापवृद्धि के दुष्प्रभाव से बचाया जा सकता है।
  • मांट्रियल समझौते के तहत क्लोरोफ्लोरो कार्बन के प्रयोग को चरणबद्ध तरीके से कम करने की राजनैतिक उत्तरदायित्व का ही परिणाम है कि ओजोन परत की क्षति को वैश्विक तापवृद्धि से अधिक महत्व दिया गया है। क्लोरोफ्लोरो कार्बन संबंधी समस्या को इसी मंच से उठाया गया न कि जलवाय परिवर्तन सम्मेलन के मंच से। जलवायु के लिए एक खतरा क्लोरोफ्लोरो कार्बन का एक विकल्प HFC है।

जलवाष्प (Water vapour)

जलवाष्प वायुमंडल में सबसे अधिक परिवर्तनशील तथा असमान वितरण वाला घटक है। इसकी मात्रा विभिन्न ऊँचाइयों पर भिन्न-भिन्न होती है। ऊँचाई के साथ जलवाष्प की मात्रा घटती है। इसके अलावा निम्न अक्षांशों से उच्च अक्षांशों की ओर जाने पर भी इसमें कमी आती है। जलवाष्प सूर्यातप के कुछ अंश को ग्रहण कर धरातल पर उसकी मात्रा को कम करता है। यह पार्थिव विकिरण को अवशोषित कर CO2 की भाँति ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न करता है। मानव जलवाष्प उत्सर्जन हेतु प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेवार नहीं माने जाते हैं, क्योंकि वे जलवाष्प की उतनी मात्रा उत्सर्जित नहीं करते जिससे वातावरण के सांद्रण में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हो जाए। हालाँकि, वातावरण में जलवाष्प की मात्रा बढ़ने का कारण CO2 और अन्य हरित गृह गैसें भी हैं, जिनके कारण पौधों के वाष्पोत्सर्जन दर में तेजी आ जाती है। साथ ही CO2 की तरह जलवाष्प हवा में स्थायी नहीं रह सकती, क्योंकि यह जलचक्र द्वारा जल भंडारों एवं वर्षा तथा हिम के रूप में परिवर्तित होती रहती है।

फ्लूरीनेटेड गैसें (Fluorinated gases)

वैश्विक तापन में इनका 14% योगदान है। वातावरण में इनका उत्सर्जन ओजोन विघटनकारी पदार्थों (CFC आदि) के प्रतिस्थापन के रूप में तथा कई औद्योगिक प्रक्रियाओं, जैसे- एल्यूमिनियम एवं अर्द्धचालक के निर्माण द्वारा होता है। अधिकांश फ्लूरीनेटेड गैसों की अन्य हरित गृह गैसों की अपेक्षा अन्य वैश्विक तापन क्षमता (High Global Warming Potentials-GWPs) होती है। फ्लूरीनेटेड गैसें सबसे प्रबल एवं दीर्घजीवी प्रकार की ग्रीन हाउस गैस हैं जो मानव क्रियाकलापों द्वारा उत्सर्जित होती है।
फ्लूरीनेटेड गैसें मुख्यतः 3 प्रकार की होती हैं-
  • HFCs (Hydroflurocarbons-हाइड्रोफ्लूरोकार्बन)
  • PFCs (Perflurocarbons परफ्लूरोकार्बन)
  • SF6 (Sulfur hexafluoride सल्फर हेक्साफ्लूराइड)

अंतर्राष्ट्रीय प्रयास

धरती को हरित गृह प्रभाव से उबारने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास शुरू हो गये हैं। परंतु, अभी तक की गयी कार्रवाई की समीक्षा से इसमें ईमानदारी एवं प्रतिबद्धता की कमी साफ झलकती है, जबकि विशेषज्ञों की राय में इन प्रयासों को शुरू करने में काफी देर हो चुकी है। हमें और हमारी धरती को इस देरी का खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। हरित गृह प्रभाव पर अंकुश लगाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रथम संधि दिसम्बर 1997 में 'क्योटो सम्मेलन' (जापान) के दौराई हुई। इस संधि पर अब तक 84 देश हस्ताक्षर कर चुके हैं, परन्तु अमेरिकी सीनेट ने इसे अभी तक अपनी मंजूरी नहीं दी है। इस संधि के तहत सन् 2008 से 2012 तक की अवधि में तीन प्रमुख ग्रीन हाउस गैसों अर्थात् कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), मिथेन (CH4) तथा नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) के 1990 के उत्सर्जन स्तर में औसतन पांच प्रतिशत कमी लाने का प्रावधान है। यह लक्ष्य प्राप्त करने के लिए यह जरूरी है कि विकसित देशों द्वारा ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर कड़ी पाबंदी लगायी जाये। यह उनकी नैतिक जिम्मेदारी भी है, क्योंकि औद्योगिक क्रांति के दौरान उन्होंने ही सबसे अधिक कार्बन डाइऑक्साइड वायुमंडल में उत्सर्जित की है।
ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर रोक लगाने के लिए वैकल्पिक गैसों को तैयार करने हेतु धन की भी जरूरत है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वैकल्पिक प्रौद्योगिकी ढूंढ़ने, उसे विकसित करने तथा सभी देशों को मुहैया कराने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र पद्धति पर सन् 1994 में 'ग्लोबल एनवायरमेंट फैसिलिटी' (G.E.F.) का गठन किया गया। 'जेफ' की आर्थिक सहायता से 120 देशों में 500 से भी अधिक परियोजनाएं चलायी जा रही हैं। भारत में भी 'जेफ' के सहयोग से कई पर्यावरण परियोजनाएं चलायी जा रही हैं। परन्तु, अपने कार्यक्रमों को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए 'जेफ' को जितने धन की जरूरत है, वह इकट्ठा नहीं हो पा रहा है। हथियारों तथा सैनिक साजो-सामान पर बेपनाह खर्च करने वाले देश यह नहीं समझ पा रहे हैं कि देश की रक्षा की तुलना में धरती की रक्षा का उत्तरदायित्व कहीं अधिक जरूरी एवं महत्त्वपूर्ण है।

भारत में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट

केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा 11 मई, 2010 में 'भारत में ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन - 2007' नामक महत्वपूर्ण रिपोर्ट जारी की गई।

रिपोर्ट के मुख्य बिन्दु निम्नवत है-
  • 1994-2007 के दौरान प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 1.4 टन से बढ़कर 1.7 टन हुआ, जबकि वैश्विक औसत 2 टन था।
  • 1994-2007 के दौरान देश में ग्रीन हाउस गैसों का शुद्ध उत्सर्जन 12 अरब टन से बढ़कर 17 अरब टन हुआ अर्थात् इसमें 41.66 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
  • ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में भारत का अमेरिका, चीन, ' यूरोपीय संघ और रुस के बाद विश्व में पाँचवाँ स्थान है।
  • भारत में ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में सर्वाधिक 58 प्रतिशत हिस्सा ऊर्जा क्षेत्र का, 22 प्रतिशत हिस्सा उद्योग क्षेत्र का, 17 प्रतिशत कृषि क्षेत्र का तथा अपशिष्ट पदार्थों की ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में हिस्सेदारी 3 प्रतिशत थी।
  • 2007 में उत्सर्जित ग्रीन हाउस गैसों में 74 प्रतिशत कार्बनडाई आक्साइड, 22 प्रतिशत मीथेन, और 4 प्रतिशत नाइटस आक्साइड का हिस्सा था।
  • 2007 में अमेरिका व चीन में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन भारत से चार गुना अधिक था।

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