कबीरदास | कबीरदास का जीवन परिचय
प्रारंभिक जीवन
कबीरदास
के बारे में |
|
पूरा नाम |
संत कबीरदास |
अन्य नाम |
कबीरा |
जन्म |
विक्रम संवत् 1455
(ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा) |
गुरु |
स्वामी रामानंद |
जन्मस्थान |
लहरतारा ताल,
वाराणसी (काशी) |
अनुयायी |
भक्ति आंदोलन में ज्ञानाश्रीयी शाखा, निर्गुण भक्तिधारा |
सारतत्व |
बीजक |
पालक माता-पिता |
नीरु और नीमा (जुलाहा दंपति) |
पति/पत्नी |
लोई |
संतान |
कमाल (पुत्र),
कमाली (पुत्री) |
कर्म भूमि |
काशी,
बनारस |
कर्म-क्षेत्र |
समाज सुधारक कवि |
कार्य क्षेत्र |
कवि,
भक्त |
काल |
भक्तिकाल |
मुख्य रचनाएँ |
साखी,
सबद और रमैनी |
विषय |
सामाजिक,
आध्यात्मिक, साहित्यिक
भक्ति आंदोलन |
भाषा |
अवधी,
सधुक्कड़ी, पंचमेल
खिचड़ी |
शिक्षा |
निरक्षर |
नागरिकता |
भारतीय |
मृत्यु |
सन 1518 (लगभग) |
मृत्यु स्थान |
मगहर, उत्तर प्रदेश |
कबीरदास के गुरु संत रामानन्द
कबीरदास की काव्य रचनाएँ
- साखी - साखी संस्कृत 'साक्षी', शब्द का बिगड़ा हुआ रूप है और धर्मोपदेश के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। कबीर की शिक्षाओं, उपदेशों और सिद्धांतों का निरूपण अधिकतर साखी में हुआ है।
- सबद - सबद गेय पद अर्थात् संगीतात्मक शैली में है। इसमें उपदेशात्मकता के स्थान पर भावावेश की प्रधानता है। इनमें कबीर के प्रेम और अंतरंग साधना की अभिव्यक्त हुई है।
- रमैनी - यह चौपाई छंद में लिखी गई है जिसमें कबीर ने दार्शनिक और रहस्यवादी विचारों को प्रकट किया है।
कबीरदास की रचनाएँ
- निर्गुण भक्तिधारा के प्रतिपादक संत कबीर ने बीजक, सबद्, रमैनी, साखी आदि रचनाएं लिखी, जिनमें सामाजिक सुधार, व्यवहारिक व उपयोगितावादी दृष्टिकोण, सामाजिक समानता आदि का उल्लेख किया गया है।
- कबीरदास की रचनायें तीन ही प्रसिद्ध हैं-'साखी', 'सबद' और 'रमैनी'।
- कबीरदास जी ने इन तीनों कृतियों में अपने ही जीवन दर्शन को अंकित नहीं किया है, अपितु समस्त संसार के व्यवहार का चित्रण किया है।
- कबीरदास की साखियाँ अत्यंत प्रसिद्ध और लोकप्रिय हैं। इन साखियों के पढ़ने और मनन करने से अज्ञानी और मोह ग्रसित व्यक्ति को जीवन की श्रेष्ठता के आधार मिलते हैं और जीवन सुधार करके जीवन को सार्थक और उपयोगी बनाने का मार्ग दर्शन भी प्राप्त होता है।
- ये साखियाँ दोहे हैं, जबकि अन्य दोनों रचनाएँ 'सबद और रमैनी' पदों में हैं।
- कबीरदास ने अपनी रचनाओं में गुरू-महिमा का जो स्वरूप प्रस्तुत किया है, वह और कहीं नहीं मिलता है। गुरू को ईश्वर से बड़ा सिद्ध करने का इतना बड़ा प्रयास किसी और ने किया ही नहीं।
कबीरदास के दोहे
- बुरा जो देखन मैं चला, बुरा ना मिल्या कोए जो मुन्न खोजा अपना, तो मुझसे बुरा ना कोए.
- काल करे सो आज कर, आज करे सो अब पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब?
- ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोए अपना तन शीतल करे, औरन को सुख होए.
- धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होए माली सींचे सौ घड़ा, ऋतू आये फल होए.
- साईं इतना दीजिये, जा में कुटुम्ब समाये मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाये
- बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर पंथी को छाया नहीं, फल लागे अतिदूर
- माँगन मरण सामान है, मत कोई मांगे भीख माँगन से मरना भला, यह सतगुरु की सीख
- कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर ना काहू से दोस्ती, न काहू से बैर
- पोथी पढ़ पढ़ कर जग मुआ, पंडित भायो न कोई ढाई आखर प्रेम के, जो पढ़े सो पंडित होए
- दुःख में सिमरण सब करे, सुख में करे न कोए जो सुख में सिमरन करे, तो दुख काहे को होय
कबीरदास
के प्रसिद्द दोहे |
चाह मिटी,
चिंता मिटी,
मनवा बेपरवाह। जिसको कुछ नहीं
चाहिए, वह शहनशाह॥ |
माला फेरत जुग भया,
फिरा न मन का फेर। कर का मन का डार दे,
मन का मनका फेर॥ |
सुख मे सुमिरन ना
किया, दुःख में करते याद। कह कबीर ता दास की,
कौन सुने फरियाद॥ |
गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय। बलिहारी गुरु आपनो,
गोविंद दियो मिलाय॥ |
धीरे-धीरे रे मना,
धीरे सब कुछ होय। माली सींचे सौ घड़ा,
ऋतु आए फल होय॥ |
तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय। कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय॥ |
कबीरा ते नर अँध है,
गुरु को कहते और। हरिरूठे गुरु ठौर
है, गुरु रूठे नहीं
ठौर॥ |
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय। एक दिन ऐसा आएगा,
मैं रौंदूगी तोय॥ |
साईं इतना दीजिये,
जा मे कुटुम समाय। मैं भी भूखा न रहूँ,
साधु ना भूखा जाय॥ |
जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल। तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥ |
माया मरीन मन मरा,
मर-मर गए शरीर। आशा तृष्णा न मरी,
कह गए दास कबीर॥ |
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर। पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर॥ |
उठा बगुला प्रेम का
तिनका चढ़ा अकास। तिनका तिनके से
मिला तिनका तिन के पास॥ |
रात गंवाई सोय के,
दिवस गंवाया खाय। हीरा जन्म अमोल था,
कोड़ी बदले जाय॥ |
सात समंदर की मसि
करौं लेखनि सब बनराइ। धरती सब कागद करौं
हरि गुण लिखा न जाइ॥ |
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय। सार-सार को गहि रहे थोथा देई उडाय॥ |
साधू गाँठ न बाँधई
उदर समाता लेय। आगे पाछे हरी खड़े
जब माँगे तब देय॥ |
कबीर आप ठगाइये,
और न ठगिये कोय। आप ठगे सुख ऊपजै,
और ठगे दुख होय॥ |
दुःख में सुमिरन सब
करे सुख में करै न कोय। जो सुख में सुमिरन
करे दुःख काहे को होय॥ |
तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय। कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय॥ |
साहब के दरबार में
साँचे को सिर पाव। झूठ तमाचा खायेगा,
रंक्क होय या राव॥ |
साँच बराबर तप नहीं,
झूठ बराबर पाप। जाके हिरदे साँच है,
ताके हिरदे आप॥ |
झूठी बात न बोलिये, जब लग पार बसाय। कहो
कबीरा साँचगह, आवागमन नसाय॥ |
साँच शब्द हिरदे गहा, अलख पुरुष भरपुर। प्रेम प्रीति का चोलना, पहरैदास हजूर॥ |
साँई सों साचा रहो,
साँई साँच सुहाय। भावे लम्बे केस रख,
भावै मूड मुड़ाय॥ |
साँच बिना सुमिरन नहीं, भय बिन भक्ति न होय। पारस में पड़दा रहै,
कंचन किहि विधि होय॥ |
सच सुनिये सच
बोलिये, सच की करिये आस। सत्य नाम का जप करो,
जग से रहो उदास॥ |
कबीर लज्जा लोक की,
बोले नाहीं साँच। जानि बूझ कंचन तजै,
क्यों तू पकड़े काँच॥ |
साँचे को साँचा
मिलै, अधिका बढ़े सनेह। झूठ को साँचा मिले,
तब ही टूटे नेह॥ |
जाकी साँची सुरति है, ताका साँचा खेल। आठ पहर चौंसठ घड़ी,
हे साँई सो मेल॥ |
कबीरदास का दर्शन/नैतिक विचार
- जब वे कहते हैं कि 'यदि जनेऊ पहनने से कोई ब्राह्मण होता है तो फिर ब्राह्मण अपनी पत्नी को तो जनेऊ नहीं पहनाता, फिर वह तो शूद्र हो गयी, ऐसे में वह अपनी पत्नी का बनाया भोजन क्यों खाता है?' कबीर इसके माध्यम से एक और ब्राह्णवाद पर प्रहार करते हैं तो दूसरी ओर महिलाओं के प्रति भेद्भावी वाली सामाजिक दृष्टिकोण पर भी प्रहार करते हैं।
- संतजन तो भाव के भूखे होते हैं, और धन का लोभ उनको नहीं होता। जो धन का भूखा बनकर घूमता है वह तो साधू हो ही नहीं सकता।
- वे जो भी कहते और करते थे, वह आत्मविश्वास के साथ करते थे और विवेक का साथ कभी नहीं छोड़ते थे। उन्होंने सत्य की खोज को सभी धर्म और पंथ के साथ जोड़कर देखने की कोशिश की है।
- वे सच्चे मानवतावादी थे। मानव मानव में उन्होंने जाति और धर्म के नाम पर कभी झगड़ा नहीं कराया, बल्कि सत मार्ग दर्शन करके मिथ्या अभिमान को नष्ट करने का उपदेश दिया।
- कबीर बराबर प्रयत्नशील रहे कि दुखी, असहाय और पीड़ित जनता के बीच सुख-शांति का प्रसार हो एवं उसका जीवन सुरक्षित और आनंदमय हो।
- कबीर सुखी जीवन की कला भक्ति को बताते थे। कबीर के पास यही ज्ञान था, इसी ज्ञान के सहारे वे जनजीवन मे हरियाली लाने का प्रयास करते रहे। वे कहते हैं कि 'अगर तुम अपनी भलाई चाहते हो, तो मेरी बातो को ध्यान से सुनो और उन पर अमल भी करो।' वे हम मानव को सर्वप्रथम स्वयं को स्थिर करने, शांत होने, अपने को पहचानने एवं आनंद मे रहने को कहते हैं। उनके अनुसार जब मानव मन के सारे विकारों को दूर करके शांत स्थिर चित्त से बैठेगा, तो वह हर प्रकार की विषम परिस्थिति से बचा रहेगा।
- कबीर व्यावहारिकता पर बल देते हैं। उनके सारे सुझाव सीधे और अनुकरणीय हैं। वे मानव को सांसारिक प्रपंच से हटाकर •अंतर्मुखी होने का सुझाव देते हैं। वे कहते हैं कि दूर का सोचना व्यर्थ है। समीपता में ही सुख का वास है।
- सभी शरीर धारियों को इस संसार में अपने कर्मानुसार दुख उठाना ही पड़ता है। दुख की इस घड़ी मे कतई घबड़ाना नहीं चाहिए, बल्कि शांतिपूर्वक दुख को सहन करना चाहिए। ज्ञानीजन अपने ज्ञान के बल पर इस दुख की मार को स्थिर चित्त से शांति पूर्वक भोग लेते हैं, लेकिन अज्ञानीजन दुख की मार से तिलमिला जाते हैं और रूदन करने लगते हैं।
- सांसारिक प्रपंच से छुटकारा पाना संभव नहीं है। शद्धि के पश्चात ही भक्ति रस में मन रमता है और सांसारिक प्रपंच से मन शनैः शनैः हटने लगता है। वे कहते है मन निर्मल होने पर आचरण निर्मल होगा और आचरण निर्मल होने से ही आदर्श मनुष्य का निर्माण हो सकेगा।
- वे कहते हैं कि विवेक के निर्देशों का पालन करने वाले जीवन में असीम आनंद का प्रवाह होता है। विवेकी व्यक्ति किसी होता, क्योकि उसे अच्छी तरह ज्ञात है कि संसार की समस्त स्थितियाँ नश्वर एवं क्षणिक हैं।
- आनंद दूसरों को दुख देकर नहीं, बल्कि इच्छापूर्वक स्वयं दुख झेलने से ही प्राप्त होता है।
- कबीर के बारे में उपरोक्त विचार दर्शन उनकी साहित्यिक रचनाओं मे मिलता है। कबीर की वाणी का एक-एक शब्द इसी दिशा में लक्षित रहा कि समाज से अंधविश्वास व भ्रांतियों समाप्त हो, समाज सुसंस्कारित हो और ईश्वरोन्मुख गति को प्राप्त करे। मानव-मानव से द्वेष न रखें व ऊँच-नीच जात-पात जैसी कोई भावना किसी के हृदय में नहीं रहे।
- कबीर का जीवन एक अच्छे और कुशल गृहस्थ की तरह व्यतीत हुआ। घर-गृहस्थी में उलझे होने के कारण कबीरदास की शिक्षा न हो पाई। कबीरदास को पुस्तकीय ज्ञान भले ही प्राप्त न हुआ हो लेकिन उन्हें सांसारिक अनुभव अवश्य प्राप्त हुआ था। कहा जाता है कि इन्होनें तत्कालीन हिन्दू संत महात्मा रामानन्द जी से शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की थी।
- कबीर निर्गुण ब्रह्म के उपासक हैं जिसे उन्होंने राम, केशव, माधव, रहीम, हरि आदि अनेक नामों से संबोधित किया।
- कबीर ने निराकार ब्रह्म को 'राम' नाम से संबोधित किया।
- कबीर के राम सगुण साकार नहीं हैं वे तो निर्गुण, अव्यक्त और निराकार हैं।
- कबीर ने जीव को ब्रह्म का अंश माना है।
- कबीर जीव और ब्रह्म अर्थात् आत्मा और परमात्मा को एक ही मानते हैं।
- कबीर के ब्रह्म जिस प्रकार सर्वव्यापक एवं सर्वविद्यमान हैं उसी प्रकार आत्मा केवल शरीर न होकर सर्वत्र है। क्योंकि आत्मा ब्रह्म का ही रूप है।
- कबीर के अनुसार जब जीव अपना वास्तविक स्वरूप पहचान लेता है तब वह खुद को परमात्मा के नज़दीक पाता है एवं सांसारिकता एवं त्रिविध दु:खों- दैहिक, भौतिक व दैविक से मुक्त हो जाता है और ऐसी आत्मा अजर-अमर हो जाती है।
- कबीर ने जगत को परब्रह्म परमेश्वर की सत्ता एवं अभिव्यक्ति माना है।
- कबीर जगत को शाश्वत, नित्य एवं चिंतन मानते हैं लेकिन वह जीवन एवं संसार को क्षणभंगुर एवं असत्य मानते हैं।
- कबीर के अनुसार जन्म-मरण से मुक्ति स्वयं को ब्रह्म में लीन कर देने से मिलती है।
- कबीर कहते हैं मनुष्य को राम से मिलाने का सबसे बड़ा अवरोध माया है।
- कबीर ने माया को अविद्या कहा है।
- काम, वासना एवं तृष्णा को माया जन्म देती है।
- माया को वशीभूत करने के लिये कबीर ने राम भक्ति का मार्ग सुझाया है।
- कबीर की सहज-साधना ब्रह्म की प्राप्ति के लिये है, इसे प्राप्त करने के लिये विषय-वासनाओं का त्याग आवश्यक माना गया है।
कबीरदास का भक्ति पक्ष
कबीरदास के काव्य में सामाजिक चेतना
- कबीरदास की जो बात सबसे ज्यादा प्रभावित करती है, वह यह है कि एक समझदार इंसान को किसी की बात अंधेपन के साथ स्वीकार नहीं करनी चाहिए। उसे सिर्फ वही बातें माननी चाहिएँ जो उसके तर्कों और अनुभवों की कसौटी पर खरी उतरे।
- 17वीं शताब्दी में लगभग यही बात यूरोप के एक विचारक रेने डेकार्ट ने कही थी जिसे 'संदेह पद्धति' के नाम से जाना जाता है। उसने कहा था कि किसी भी बात को स्वीकार करने से पहले व्यवस्थित तरीके से उसमें निहित हर धारणा पर संदेह करना चाहिए और जब हर प्रश्न का संतोषप्रद उत्तर मिल जाए तो ही उसे स्वीकार करना चाहिए। इसे 'वैज्ञानिक चिंतन पद्धति' कहते है, उसकी सैद्धांतिक स्थापना डोकार्ट, न्यूटन तथा थॉमस हॉब्स ने ही की थी।
- इस दृष्टिकोण की प्रासंगिकता यह है कि सभी रूढ़िवादी धारणाएँ तथा आस्थाएँ, जो कि आज के समय में अपनी प्रासंगिकता खो चुकी हैं और सिर्फ इसलिए चलती जा रही हैं कि लोग उनके आदि हो चुके हैं, उन सभी पर एक गंभीर प्रश्नचिन्ह लग जाता है।
- जो प्रश्न गैलीलियों, कॉपरनिकस और ब्रूनों ने रूढ़िवादी ईसाइयत के विरूद्ध यूरोप में खड़े किए थे, लगभग वही सवाल कबीरदास ने भारत की रूढ़िवादी परंपराओं के सामने खड़े किए और खुलकर तर्कवाद, अनुभववाद तथा आधुनिक जीवन दृष्टि को प्रस्तावित किया। कबीरदास की संपूर्ण नैतिक विचारधारा इसी तर्कवाद पर आधारित है। वे सिर्फ एकाध मुद्दे पर चूके हैं।
- कबीरदास ने जातिवाद का कठोर शब्दो में खंडन किया। उस समय के समाज मे जहाँ जातिवाद अपने प्रचंड रूप में मौजूद था और तथाकथित निम्न जातियों के मानवाधिकार हर कदम पर खतरे मे रहते थें जातिवाद का इतना प्रचंड विरोध करना बेहद क्रांतिकारी कदम था।
- जातिवाद का थोड़ा बहुत विरोध बौद्ध परंपरा ने भी किया था पर उस विरोध में वैसी उग्रता और तीक्ष्णता नहीं थी जो कबीरदास के विरोध में दिखती है।
"जो तू बांभन-बंभनी का जाया, आन बाट हवै क्यों नही आया।"
- कहने की जरूरत नहीं कि कबीरदास का यह जाति विरोध हमारे लिए भी बेहद प्रासंगिक है। ऊपर से भले ही हम जाति व्यवस्था से मुक्त नजर आते हो सच यह है कि आज भी हमारा समाज बड़े पैमाने पर जातीय मानसिकता से संचालित होता है।
- विवाह संबंधों में जाति की भूमिका आज भी प्रचंड है। सबसे निकृष्ट पेशे (जैसे शौचालयों को सफाई करना, मरे हुए जानवरों का चमड़ा उतारना) आज भी कुछ जातियों के सदस्यों को ही अपनाने पड़ते हैं। यह सही है कि आजादी मिलने के बाद हमारे देश ने जातीय भेदभाव के शिकार रहे लोगों को शिक्षा तथा नौकरी के क्षेत्रों में आरक्षण जैसी विशेष सुविधाएँ दी हैं, किन्तु यह भी सच है कि उन सुविधाओं के बावजूद अभी तक समाज का पर्याप्त समतलीकरण नहीं हो पाया है। सबसे ज्यादा जरूरी है कि उन लोगों का दिमाग बदला जाए जो आज भी अपनी जातीय श्रेष्ठता के दंभ से भरे है और यह बात समझने को बिल्कुल तैयार नहीं है कि आधुनिक समाज में प्रत्येक मनुष्य का सम्मान और हिस्सा उसकी योग्यताओं तथा मानवीय जरूरतों से निर्धारित होना चाहिए, न कि सिर्फ इस तुक्के से कि उसका जन्म किस परिवार या जाति में हुआ है।
- संत कबीर की तर्कवादी सोच का दूसरा पहलू वहाँ दिखता है जहाँ वे सांप्रदायिकता पर करारी चोट करते हैं। उनके समय में इस्लाम भारत में आया ही था और भारत के निवासियों के सामने एक रहस्य बनकर खड़ा था।
- उच्च जातियों के लोग प्रायः उससे आतंकित थे क्योंकि उनके लिए अपनी धार्मिक परंपराओं की रक्षा करना कठिन हो रहा था जबकि निम्न जातियों के बहुत से लोग इस्लाम के प्रति आकर्षित भी हो रहे थे क्योंकि उस मजहब मे सभी व्यक्ति खुदा के सामने बराबर माने जाते थे। जातिवादी भेदभाव से त्रस्त व्यक्ति को समतावादी मजहब आकर्षित क्यों न करता?
- कबीरदास की सोच यह थी कि व्यक्ति का मजहब चाहे जो भी हो, इस बात से उसे या दूसरों को कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए। अगर ईश्वर एक है तो निस्संदेह उसी ने हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को बनाया है। इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि कुछ लोग उसे 'ब्रह्म' कहते हैं जबकि कुछ 'खुदा'।
- कहने की जरूरत नहीं है कि वर्तमान समय में सांप्रदाकिता के जहर से लड़ने के लिए कबीरदास की यह सोच बेहद प्रासंगिक हो जाती है। हम कहने को भले ही 21वीं शताब्दी में हो, किंतु जिस तरह से हम बात-बात पर हिंदू-मुस्लिम दंगों के स्तर पर पहुँच जाते हैं, उससे यही सिद्ध होता है कि चेतना के स्तर पर हम मध्यकाल की सीमाओं को लांघ नही सके हैं।
- कबीरदास की तर्कवादी सोच का तीसरा पहलू उनके आडंबर विरोधी नज़रिए मे दिखता है। वे मध्यकाल के संत थे, इसलिए ईश्वर में उनकी गहरी आस्था थी किन्तु अपनी सहज तार्किकता से वे समझाते थे कि ईश्वर, जो आने आप में पूर्ण है, किसी भी प्राणी से यह अपेक्षा नहीं रखता होगा कि वह उसके नाम पर बलि चढाए, तीर्थाटन या कर्मकांड करे।
- अपनी इसी तार्किकता के चलते उन्होने हिंदूओं और मुसलमानों में प्रचलित आडंबरों पर करारा प्रहार किया।
- उनके व्यंग बाण इतने तीखे होते थे कि उनकी चोट खाने वाला पंडा या मुल्ला जवाब देने के काबिल नहीं रहता था और तुरंत आत्मसमर्पण या पलायन की मुद्रा अख्तियार कर लेता था।
- आज भी हमारे देश में धार्मिक आडंबर और अंधविश्वास हर जगह मौजूद है। इन आडंबरों के रहते हम वैज्ञानिक स्वभाव से युक्त समाज का निर्माण नहीं कर सकते। कबीर का महत्त्व यह है कि वे हमें आडंबरों और अंधविश्वासों पर तार्किक सवाल खड़े करना सिखाते हैं। ऐसा वैज्ञानिक स्वभाव अगर सभी का हो जाए तो निश्चित तौर पर तमाम रूढ़ियाँ और अतार्किक प्रथाएँ समाप्त हो सकती हैं।
- कबीर हमें कुछ अन्य मामलों में भी नैतिक सलाह देते हैं और उनकी अधिकांश नैतिक सलाह आज भी हमारे काम की हैं।
- उदाहरण के लिए एक दोहे में उन्होने सलाह दी है कि व्यक्ति को बहत अधिक धन कमाने की लालसा नहीं रखनी चाहिए क्योंकि वह किसी काम नहीं आता है। उतना ही धन काफी है कि परिवार की बुनियादी जरूरतें पूरी हो जाएँ और अतिथि का सत्कार करने में कोई समस्या पेश न आए।
- कोई चाहे तो कह सकता है कि आर्थिक विचारों के स्तर पर कबीर समाजवाद और गांधीवाद के नजदीक ठहरते हैं।
- कबीर ने अहिंसा का विचार भी अत्यंत गहराई के साथ रखा है। उन्होंने महावीर और बुद्ध की परंपरा के अलावा वैष्णव परंपरा से भी अहिंसा का सिद्धांत सीखा और निजी जीवन में उपयोग किया।
- उनका एक कथन है कि चींटी हो या हाथी, सब एक ही ईश्वर के प्राणी हैं (सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय)।
- कबीरदास के अन्य नैतिक उपदेश भी वर्तमान में बेहद प्रासंगिक हैं। उदाहरण के लिए उनकी सलाह है कि व्यक्ति को दूसरो से बातचीत के लिए विनम्र भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए।
- वे इस बात को समझते थे कि अधिकांश झगड़ें भाषा की असावधानियों के कारण ही जन्म लेते हैं, न कि वैचारिक या मानसिक वैगरीत्य के कारण, इसलिए उन्होनें स्पष्ट सलाह दी कि व्यक्ति को यथासंभव मधुर भाषा का प्रयोग करना चाहिए।
- कुछ मामलों में कबीरदास उस परंपरा के नजदीक पहुँच जाते हैं जो आधुनिक काल में महात्मा गांधी के व्यक्तित्त्व में दिखती है और प्राचीन काल में ईसा मसीह, बद्ध और महावीर के जीवन में। ईसा मसीह और कि अगर कोई तुम्हारे एक गाल पर तमाचा मारे तो दूसरा गाल आगे कर दो। इस कथन का भाव सिर्फ इतना है कि हमें अपने होशो-हवास मे किसी का भी बुरा नहीं करना चाहिए- उनका भी नहीं जिन्होने हमारे साथ बुरा किया हो।
- कबीर हमें आत्म-आलोचना करना भी सिखाते हैं। आमतौर पर हमारी आदत होती है कि हम दूसरों की कमियों और अपनी अच्छाइयाँ तुरंत देख लेते हैं। कहा भी जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने मामले में सबसे अच्छा वकील होता है और दूसरों के मामले मे सबसे बुरा जज।
- कबीर हमें इस निम्न मानसिकता से मुक्त करना चाहते हैं। वे सिखाते हैं कि दूसरो पर कठोर कसौटियो का प्रयोग करने की बजाय खुद पर उनका इस्तेमाल करना चाहिए और अपनी कमियों को ईमानदारी से स्वीकार करने का हौंसला रखना चाहिए।
कबीर नीति के नकारात्मक पहलू
- कबीरदास के अंधसमर्थक इन कथनों पर भी सफाई देने की मुद्रा मे रहते हैं पर सच यह है कि हमें इस बिंदु पर कबीरदास की सीमा स्वीकार कर लेनी चाहिए। कोई भी विचारक चाहे वह कितना भी महान हो सभी पक्षों पर बराबर प्रगतिशील नहीं हो सकता। कबीर नारी के मुद्दे पर अपने समय की सीमाओं को नहीं लांघ सके, उनकी यह कमी तो हमें माननी ही होगी। kabirdas jivan parichay
- कबीर की दूसरी सीमा यह है कि वे सबकों विनम्र भाषा का प्रयोग करने की सलाह देते है, किंतु खुद इतनी आक्रामक भाषा का प्रयोग करते हैं कि सुनने वाला तिलमिला जाए। यह अंतर्विरोध हर जगह तो नहीं दिखता, किंतु कबीर के कुछ कथनों मे जरूर झलकता है- विशेषतः वहाँ जहाँ वे किसी मुल्ले या पंडे पर आडंबरो या जातिवादी व्यवहार के कारण प्रहार कर रहे हैं। कुछ लोग इसे कबीर की सीमा मानते हैं तो कुछ का मानना है कि इस गुस्से और आक्रामकता के कारण ही कबीर 'कबीर' बन सके।
- कबीर के समय तो यह दृष्टिकोण चल जाता था पर आज नहीं चल पाता। वर्तमान विश्व के अधिकांश लोग सैद्धांतिक तौर पर चाहे माने या नही, पर व्यावहारिक तौर पर समझ चुके हैं कि यह दुनिया ही वास्तविक और अंतिम दुनिया है, इसलिए इसे झूठा मानना और किसी काल्पनिक दुनिया के सपने देखना निरर्थक है।
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