निर्धनता (Poverty)
निर्धनता (Poverty) की परिभाषा
निर्धनता का अर्थ उस सामाजिक आर्थिक स्थिति से है जिसमें समाज का एक भाग, जीवन, स्वास्थ्य एवं दक्षता के लिए न्यूनतम उपभोग आवश्यकताओं को जुटा पाने में असमर्थ होता है। जब समाज का बहुत बड़ा भाग न्यूनतम जीवन स्तर से वंचित होकर केवल निर्वाह स्तर पर गुजारा करता है तो उसे व्यापक निर्धनता कहा जाता है। भारत सहित तीसरी दुनिया के देशों में ऐसी ही निर्धनता पाई जाती है।
निर्धनता की गणना सापेक्ष एवं निरपेक्ष दोनों रूपों में की जाती है। सापेक्ष दृष्टि से निर्धनता का मापन विभिन्न वर्गों देशों के निर्वाह स्तर की तुलना करके की जाती है। निर्वाह स्तर का अर्थ है आय/उपभोग व्यय निरपेक्ष दृष्टि से निर्धनता मापन में निर्वाह की न्यूनतम जरूरतों- भोजन, वस्त्र, कैलोरी, आवास आदि को रखा जाता है। जिन्हें ये न्यूनतम चीजें भी उपलब्ध नहीं होती, उन्हें गरीब कहा जाता है। भारत में निर्धनता मापन हेतु निरपेक्ष मापन को अपनाया जाता है।
प्राचीन काल से ही भारत अपनी आर्थिक संपन्नता एवं समृद्धि के लिए विख्यात रहा है और मध्यकाल में भी समृद्धि की यह धारा निरन्तर बढ़ती रही जिसका प्रमुख कारण व्यापार वाणिज्य की प्रगति एवं कृषि तथा लघु उद्योग के मध्य स्थापित अद्भुत सामंजस्य या बिन्दु जैसे-जैसे अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन का शिकंजा कसता चला गया, वैसे-वैसे आर्थिक प्रगति की धारा अवरुद्ध होती चली गई। अंग्रेजी औद्योगिक क्रांति के विकास की खातिर हस्तशिल्प एवं कुटीर उद्योग की बलि दे दी गई एवं भू-राजस्व की दर बढ़ा दी गई जिसके फलस्वरूप उद्योग एवं कृषि का पतन हो गया और लोगों की स्थिति दयनीय हो गई तथा साथ ही लोग गरीबी एवं बेरोजगारी के दुष्चक्र में फंसते चले गये।
हालांकि स्वतंत्रता प्राप्ति उपरांत नीति निर्माताओं ने इन समस्याओं के समाधान हेतु विभिन्न प्रयास किये, सफलता भी प्राप्त की किन्तु सफलता अपेक्षित परिणाम के अनुरूप न हो सकी एवं विकास का लाभ समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति - तक नहीं पहुंच पाया। विकास तो हुआ किन्तु समाज का एक बड़ा वर्ग उस विकास से वंचित रह गया इसलिए पुन: एक ऐसी समग्र नीति की आवश्यकता महसूस की जा रही है जिसके क्रियान्वयन से प्रत्येक व्यक्ति एक गरिमामय जीवन जी सके। इसी पृष्ठभूमि - के आलोक में हम गरीबी, उसके कारण, उसके प्रभाव तथा समाधान के लिए आगे चर्चा करने का प्रयास करेंगे।
निर्धनता रेखा
योजना आयोग ने निर्धनता रेखा हेतु कैलोरी को आधार बनाया था। उसके अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन 2400 कैलोरी तथा शहरी क्षेत्र में 2100 कैलोरी की उपलब्धता भोजन में होनी चाहिए। इस सीमा से कम पोषण पाने वाले लोग गरीबी रेखा से नीचे माने जाते हैं। योजना आयोग ने पोषण आहार संबंधी इन न्यूनतम जरूरतों के आधार पर 1973-74 के मूल्यों पर 49.09 रूपये (ग्रामीण क्षेत्रों में) तथा 56.64 रूपये (शहरी क्षेत्रों में) प्रतिमान की निर्धनता रेखाएं तय की जो वर्तमान मूल्यों पर संशोधित की जाती रही है। यह प्रक्रिया राज्यवार की जाती है तथा राज्यस्तरीय मूल्यों को ध्यान में रखा जाता है।
निर्धनता के कारण (Causes of Poverty)
भारत में निर्धनता की समस्या की व्याख्या दो संदर्भो में की जाती है
- (A) एक विकासशील अर्थव्यवस्था के संदर्भ में निर्धनता
- (B) आय के असमान वितरण के संदर्भ में निर्धनता
(A) एक विकासशील अर्थव्यवस्था के संदर्भ में निर्धनता
भारत की अर्थव्यवस्था विकासशील है, जिसमें निकट भविष्ट में बेहतर सम्भावनएँ विद्यमान हैं। परन्तु समाज के प्रत्येक वर्ग तक आर्थिक प्रगति के लाभ न पहुँचना भारत में निर्धनता का मूल कारण है। एक विकासशील अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में भारत में निर्धनता के निम्नलिखित कारणों की पहचान की जा सकती है।
1. राष्ट्रीय आय का निम्न स्तर (Low National Income)
- भारत की कुल राष्ट्रीय आय भारत की जनसंख्या की तुलना में अत्यन्त कम है। वित्त वर्ष 2016-17 में भारत की प्रति व्यक्ति निवल राष्ट्रीय आय 1,03,219 रु. थी, जो वर्ष 2017-18 में बढ़कर 1,11,782 रु. होने की सम्भावना है। लगभग 125 करोड़ की जनसंख्या की दृष्टि से यह स्थिति भारत को निर्धन देशों की श्रेणी में रखती है।
2. जनसंख्या का अधिक दबाव (Heavy Pressure of Population)
- भारत की अर्थव्यवस्था पर लगभग 125 करोड़ की विशाल जनसंख्या का दबाव है। भारत की जनसंख्या में तीव्र वृद्धि हुई है। इस वृद्धि का कारण पिछले कई वर्षों से मृत्यु दर में कमी तथा जन्म दर का लगभग स्थिर रहना है।
- 1941-1951 के दशक में जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि दर 1% थी, जो 1991-2001 के दशक में बढ़कर 2.1% वार्षिक हो गई और 2001-2011 के दशक में कुछ कम होकर 1.7% वार्षिक रही। भारत में वर्ष 1991 में लगभग 83.8 करोड़, वर्ष 2001 में 102.8 करोड़ जनसंख्या थी, जो वर्ष 2011 में 121 करोड़ हो गयी है। लगातार बढ़ती जनसंख्या निर्भरता भार (Dependency Durden) में वृद्धि करती है जिससे निर्धनता में वृद्धि होती है। निर्धनता का सबसे प्रमुख कारण तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या है जो GDP संवृद्धि में होने वाली वृद्धि को निष्प्रभावी कर देती है।
3. मुद्रास्फीतिकारी जाल (Inflationary Spiral)
- वस्तुओं एवं सेवाओं की कीमतों में निरंतर वृद्धि होना मुद्रा-स्फीति कहलाता है। मुद्रा-स्फीति लोगों की वास्तविक आय को कम करती है। यदि मुद्रास्फीति की स्थिति लम्बे समय तक रहे तो गरीबी रेखा के बिल्कुल ऊपर के परिवार गरीबी रेखा से नीचे आ जाते हैं और पहले से ही गरीबी रेखा के नीचे के परिवार अत्यधिक निर्धनता की स्थिति में पहुँच जाते हैं। यह स्थिति मुद्रास्फीतिकारी जाल कहलाती है। भारत में जनसंख्या एक बड़ा वर्ग इस स्थिति के प्रति संवेदनशील है।
4. चिरकालिक बेरोजगारी एवं अल्परोजगार (Chronic Unemployment and Underemployment)
- भारत में में चिरकालिक अल्परोजगार व बेरोजगारी की स्थिति पायी जाती है। कृषि क्षेत्र में अदृश्य या छिपी बेराजगारी (Disguised Unemployment) से लेकर शहरी क्षेत्रों में शिक्षित बेरोजगारी तक की स्थिति पायी जाती है। बेरोजगारी की यह समस्या निर्धनता का मुख्य कारण है।
- अतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार भारत में वर्ष 2016 में बेरोजगारों की संख्या 17.7 मिलियन थी।
5. पूँजी की अपर्याप्तता (Capital Deficiency)
- तीव्र आर्थिक विकास एवं निर्धनता के स्थायी समाधान के लिए पूँजी की पर्याप्त उपलब्धता आवश्यक है। परन्तु भारत में पूँजी स्टॉक एवं पूँजी निर्माण की दर (Capital Formation Rate) बहुत कम है। पूँजी की कमी से उत्पादन क्षमता प्रभावित होती है। यह स्थिति निम्न रोजगार स्तर तथा उच्च निर्धनता स्तर को जन्म देती है।
- पूँजी की कमी - उत्पादन क्षमता का निम्न स्तर - रोजगार का निम्न स्तर - निर्धनता का उच्च स्तर।
6. पुरातन सामाजिक संस्थाएँ (Outdated Social Institutions)
- भारत की सामाजिक संरचना एवं पुरातन परम्पराएँ भी कुछ सीमा तक निर्धनता को जन्म देती हैं। जाति-प्रथा, जाति आधारित व्यवसाय की परम्परा, संयुक्त परिवार एवं उत्तराधिकार के नियम अर्थव्यवस्था के गत्यात्मक परिवर्तनों (Dynamic Changes) में बाधा उत्पन्न करते हैं। परिणामस्वरूप, विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
7. आधारिक संरचना का अभाव (Lack of Infrastructure)
- निर्धनता एवं बेरोजगारी के स्थायी समाधान के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, ऊर्जा, यातायात एवं संचार जैसी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति अत्यंत आवश्यक है। इन सुविधाओं तक सबकी सार्वभौमिक पहुँच से लोगों के जीवन स्तर में सुधार आता है।
(B) आय के असमान वितरण के संदर्भ में निर्धनता
- आय का असमान वितरण भारतीय अर्थव्यवस्था का सर्वाधिक नकारात्मक पक्ष है। यह भी निर्धनता का एक प्रमुख कारण है। सरकार द्वारा प्रगतिशील कर प्रणाली (Progressive Tax System) एवं अन्य उपायों के माध्यम से लोगों के बीच आय के अन्तर को कम करने का प्रयास किया गया है परन्तु इससे निर्धनता को स्थायी रूप से समाप्त करने में सफलता नहीं मिली है।
- National Council for Applied Economic Research-NCAER द्वारा प्रस्तुत एक रिपोर्ट के अनुसार, देश के शीर्ष 20% धनी लोगों के पास देश की कुल आय का 53.2% भाग है। जबकि नीचे के 40% लोगों के पास कुल आय का मात्र 15.9% भाग है।
- एकाधिकार जाँच आयोग (Monpolies Inquiry Commission) के अनुसार, देश की 1536 कंपनियाँ केवल 75 परिवारों के नियंत्रण में हैं। आय का असमान वितरण न केवल वर्तमान निर्धनता प्रकट करता है बल्कि, यह धनी और निर्धन वर्ग के मध्य अत्यधि क अंतर को भी दर्शाता है।
निर्धनता के पैमाने
निर्धनता के निर्धारण हेतु भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण अपनाए जाते रहे हैं। इनमें से प्रारंभिक रूप में आय निर्धनता की धारणा लोकप्रिय रही है परन्तु वर्तमान में गरीबी के संदर्भ में बहुआयामी दृष्टिकोण को मान्यता दी जा रही है।
कैपेबिलिटी पॉवर्टी मेजर्स
1996 के मानव विकास रिपोर्ट में मानवीय वंचना के एक नये बहुआयामी निर्धारक 'कैपेबिलिटी पॉवर्टी मेजर्स' को प्रस्तुत किया गया। CPM मानव क्षमताओं पर केन्द्रित है, जैसा कि मानव विकास सूचकांक भी करती है। यह लोगों की क्षमताओं के औसत स्तर का परीक्षण नहीं करती, बल्कि यह ऐसे लोगों के प्रतिशत को प्रदर्शित करती है, जिनमें आधारभूत या न्यूनतम आवश्यक क्षमताओं का अभाव होता है। ये क्षमताएं स्वयं में लक्ष्य हैं और लोगों को आय निर्धनता के स्तर से ऊपर उठाने तथा सशक्त मानवीय विकास की निरंतरता के लिए आवश्यक होती हैं।
कैपेबिलिटी पॉवर्टी मेजर्स तीन आधारभूत क्षमताओं के अभाव पर ध्यान केन्द्रित करता है, जो निम्नलिखित हैं:-
- बेहतर पोषण एवं स्वास्थ्य क्षमताओं का अभाव, जो पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में अल्पभार के अनुपात को प्रदर्शित करता है।
- स्वस्थ प्रजनन के लिए क्षमता का अभाव, यह प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मियों द्वारा प्रसव न होने के अनुपात को प्रदर्शित करता है।
- शिक्षित और ज्ञानवान होने की क्षमता का अभाव।
संयुक्त रूप में यह सूचकांक महिलाओं की वंचना पर सर्वाधिक बल देता है, क्योंकि रिपोर्ट के अनुसार यह सर्वविदित तथ्य है कि महिलाओं की वंचना परिवारों और समाज के मानव विकास को सर्वाधिक प्रतिकूल रूप में प्रभावित करती है।
निर्धनता को दूर करने के उपाय
भारत व्याप्त में निर्धनता को दूर करने के सभी उपायों को चार श्रेणियों के अंतर्गत वर्गीकृत किया जा सकता है, जो निम्नवत हैं-
1. सकल घरेलू उत्पाद में संवृद्धि के द्वारा निर्धनता का सामना करना
सकल घरेलू उत्पाद में तीव्र संवृद्धि प्राप्त करके निर्धनता के विरुद्ध प्रभावी कदम उठाए जा सकते हैं। जब जीडीपी की वृद्धि दर ऊँची होती है तब रोजगार के नए अवसर उत्पन्न होते हैं। कृषि तथा औद्योगिक क्षेत्र में मजदूरों को रोजगार उपलब्ध होता है। जिससे निर्धन वर्ग की आय में वृद्धि होती है। इस प्रकार वे धीरे-धीरे निर्धनता की स्थिति से बाहर निकल आते हैं।
रोजगार-रहित विकास से बचना
जब जीडीपी में वृद्धि उत्तम प्रौद्योगिकी के कारण होती है और रोजगार का सृजन नहीं होता है, तो इसे रोजगार-रहित वृद्धि कहा जाता है। निर्धनता केवल तब ही कम होगी जब विकास के साथ-साथ रोजगार के अवसरों में भी वृद्धि हो। सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि, उत्पादन प्रक्रिया पूँजी प्रधान तकनीक के स्थान पर श्रम प्रधान हो।
2. आय के वितरण में राजकोषीय तथा कानूनी उपायों के माध्यम से निर्धनता का सामना करना
राजकोषीय उपाय (Fiscal Measures)
कराधान और आर्थिक सहायता से सम्बंधित हैं। निर्धनता कम करने के लिए सरकार प्रगतिशील कर प्रणाली को अपना सकती है। इसका अर्थ है, धनी वर्ग की आय एवं संपत्ति पर कर की अपेक्षाकृत ऊँची दर रखना। आर्थिक सहायता का अर्थ है कि, सरकार की कर प्राप्तियों का प्रयोग समाज के निर्धन वर्ग द्वारा खरीदी जाने वाली वस्तुओं हेतु सब्सिडी के रूप में किया जा सकता है।
कानूनी उपायों (Legislative Measures)
के अन्तर्गत न्यूनतम मजदूरी अधिनियम (Minimum Wages Act) शामिल है, जिसके अनुसार यह आवश्यक है कि, नियोक्ता अपने कर्मचारियों को अनुबंधित न्यूनतम मजदूरी प्रदान करें। कानूनी उपायों के अंतर्गत कृषि उत्पादों की खरीद के लिए आधार कीमत (Floor Price) जैसी नीतियाँ भी शामिल हैं। आधार कीमत से अभिप्राय उस अनुबंधित न्यूनतम कीमत से है, जिस पर किसानों के उत्पाद क्रय किए जाते हैं। शिक्षा का अधिकार (Right to Education) जैसे प्रावधान कानूनी उपायों के अन्य उदाहरण हैं जो समाज के निर्धन वर्ग के जीवन की गुणवत्ता में सुधार के लिए आवश्यक हैं।
3. जनसंख्या नियंत्रण द्वारा निर्धनता का सामना करना
- जनसंख्या में वृद्धि के कारण भारत की राष्ट्रीय आय में होने वाली वृद्धि भी निर्धनता दूर करने में अधिक सहायक नहीं हुई है। भारत में प्रति व्यक्ति आय (राष्ट्रीय आय तथा जनसंख्या का अनुपात) निम्न स्तर पर ही बनी हुई है। अतः निर्धनता को दूर करने के लिए जनसंख्या वृद्धि की दर पर नियंत्रण आवश्यक है।
- नियंत्रित जनसंख्या वृद्धि से आर्थिक संवृद्धि का व्यापक प्रभाव पड़ेगा एवं प्रति व्यक्ति आय में महत्वपूर्ण वृद्धि होगी। अधिक बचत तथा निवेश के माध्यम से आय में वृद्धि पर इसका गुणात्मक प्रभाव पड़ेगा। अधिक आय (प्रति व्यक्ति) का अर्थ होगा अधिक बचत, अधिक निवेश, अधिक उत्पादन, अधिक रोजगार और अंततः कम निर्धनता।
- परिवार का आकार एवं निर्धनता दोनों प्रत्यक्ष रूप से अन्तर्सम्बंधित हैं, छोटे परिवार के पास वस्तुओं एवं सेवाओं की उपलब्धता अधि क होती है, जबकि छोटे आकार का परिवार अपनी सीमित आये में सीमित आवश्यकताओं की ही पूर्ति कर सकता है।
- जनसंख्या के नियंत्रण से अतिरिक्त श्रम बल में कमी आएगी जिससे श्रम की आपूर्ति एवं पूँजी स्टॉक के मध्य संतुलन स्थापित करने में सहायता मिलेगी तथा सहभागिता की दर में वृद्धि होगी।
- सहभागिता की दर (Rate of Participation) में वृद्धि का अर्थ हैयदि अन्य दशायें समान रहें, तब निर्धनता रेखा से नीचे रहने वाली जनसंख्या में लगातार कमी हो।
4. निर्धनों के जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाने वाले अन्य उपाय
कृषि का विकास
भारत की लगभग 49% जनसंख्या कृषि में संलग्न है इसलिए, कृषि क्षेत्र के विकास के माध्यम से इस क्षेत्र से जुड़े लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाया जा सकता है। कृषि के यंत्रीकरण एवं आधुनिकीकरण के माध्यम से तथा उन्नत बीजों व सिंचाई सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करके किसानों की आय में वृद्धि की जा सकती है। छोटे किसानों को उचित आर्थिक सहायता (Subsidy) तथा भूमिहीन किसानों को भूमि का स्वामित्व
प्रदान करके निर्धनता को कम अथवा समाप्त किया जा सकता है।
कीमत स्तर में स्थिरता (Stability in the Price Level)
कीमतों में निरंतर वृद्धि होने से निर्धन वर्ग के जीवन स्तर में गिरावट आती है। कीमतों में स्थिरता निम्नलिखित उपायों के माध्यम लायी जा सकती है-
- (i) खाद्य तथा अन्य सामान्य उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि की जाए।
- (ii) निर्धन वर्ग में सामान्य उपभोग वाली वस्तुओं का वितरण
उचित मूल्य की दुकानों के माध्यम से किया जाए।
मानव निर्धनता सूचकांक
मानव विकास रिपोर्ट, 1997 में पहली बार मानव निर्धनता सूचकांक (HPI) प्रस्तुत किया गया, जिसका उद्देश्य गुणवत्तापूर्ण जीवन में वंचना के विभिन्न स्वरूपों की एक संयुक्त सूचकांक में शामिल कर किसी समुदाय में गरीबी के विस्तार के बारे में संतुलित निष्कर्ष तक पहुंचाना है।
मानव निर्धनता सूचकांक के तीन आयाम निम्नलिखित हैं:-
- पहली वंचना अस्तित्व जीविता से संबंधित है, जो शुरूआती उम्र में मृत्यु की संभावना को बताया है तथा विकासशील देशों (HPI-I) और विकसित देशों (HPI-II) के लिए क्रमशः 40 और 60 वर्ष तक जीवित रहने की संभावना प्रदर्शित करती है।
- दूसरा आयाम ज्ञान से संबंधित है, जो वयस्कों में निरक्षरता के प्रतिशत की गणना करता है।
- तीसरा पहलू गरिमामय जीवन स्तर से संबंधित है।
यद्यपि इस सूचकांक का स्थान वर्तमान में बहुआयामी निर्धनता सूचकांक ने ले लिया है।
बहुआयामी गरीबी निर्देशांक
- यह सूचकांक निर्धनता के तीन आयामों शिक्षा, स्वास्थ्य व जीवन स्तर का मापन 10 संकेतकों के आधार पर करता है, जिसमें स्वास्थ्य एवं शिक्षा संबंधी सीधे मापन योग्य वचनों के अतिरिक्त प्रमुख सेवाओं यथा जल, स्वच्छता, विद्युत एवं अच्छे कुकिंग ईधन, पोषण आदि की उपलब्धता भी शामिल है।
- यह निर्धनता के संघटन (Composition) का मापन कर निर्धनता की तीव्रता (Intensity) का पता लगाने में भी सक्षम है यथा- 70 प्रतिशत संकेतकों पर वंचित व्यक्ति 40 प्रतिशत संकेतकों पर वंचित से अधिक खराब स्थिति में होगा।
- सूचकांक आधारित आंकड़ों के आधार पर निर्धनता निवारण योजनाओं के संसाधनों का अधिक बेहतर तरीके से विशिष्ट वंचन केन्द्रित उपयोग किया जा सकता है।
- सूचकांक प्रभावी नीतिगत हस्तक्षेपों के परिणामों को शीघ्रता से बताने में सक्षम है यथा- स्कूल नामांकन स्थिति में परिवर्तन को शीघ्र मापा जा सकता है जबकि आय वृद्धि के
- प्रभावी होने में समय लगता है।
- इससे सर्वाधिक वंचित/निर्धन व्यक्तियों की पहचान की जा सकती है जिनके लिए लक्ष्य का प्रभावी नीतिगत हसाक्षेप किया जा सकता है।
- इस सूचकांक का एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि इसमें आवश्यकता प्रतीत होने तथा आंकड़े उपलब्ध होने पर अन्य वंचनों (यथा- कार्य, सुरक्षा, सशक्तिकरण आदि) से संबंधित संकेतक भी शामिल किये जा सकते हैं।
- यह निर्धनता की प्रकृति एवं विस्तार का मापन विभिन्न स्तरों यथा- घरेलू स्तर से क्षेत्रीय, सामुदायिक, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक करता है।
गरीबी रेखा
गरीबी रेखा को सामान्य अर्थों में इस प्रकार परिभाषित किया जाता है कि गरीबी वितरण रेखा का विभाजक बिन्दु है जो जनसंख्या को दो भागों में विभाजित करता है, ऐसे लोग जो गरीब हैं तथा ऐसे जो गरीब नहीं हैं। लेकिन भारत में इसकी परिभाषा लोगों की न्यूनतम उपभोग आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर की जाती है। इसके अनुसार प्राय: वे लोग गरीब माने जाते हैं जो एक निश्चित न्यूनतम उपभोग का स्तर प्राप्त करने में असफल रहते हैं। दसरे शब्दों में, गरीबी रेखा वह रेखा है जो उस प्रति व्यक्ति औसत मासिक व्यय को प्रकट करती है, जिसके द्वारा लोग अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं को संतुष्ट कर सकते हैं।
निर्धनता के प्रकार
1. सापेक्ष निर्धनता
इस प्रकार में गरीबी का अध्ययन तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य में किया जाता है। इसके लिए पहले किसी समाज की औसत आय और औसत जीवन स्तर का पता लगाया जाता है और उस औसत से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों को सापेक्ष गरीब माना जाता है अर्थात् यह समाज के विभिन्न वर्गों के मध्य आय विषमता का सूचक होता है। इसे लारेंज वक्र और गिनी गुणांक के जरिए प्रदर्शित किया जाता है।
- लारेंज वक्र- विभिन्न आय वर्गों के मध्य धन के संचयी प्रतिशत को निरूपित करने वाला वक्र लारेंज वक्र कहलाता है. इसे वर्ष 1905 में मैक्स ओ. लारेंज ने विकसित किया।
- गिनी गुणांक- इसे वर्ष 1912 में इटैलियन सांख्यिकीविद् कोरेगेगिनी द्वारा प्रतिपादित किया गया। इस गुणांक के माध्यम से लारेंज वक्र की अभिव्यक्ति गणितीय रूप में की D जाती है, क्योंकि लारेंज वक्र केवल असमानता को बतलाता है, असमानता कितनी बढ़ रही है, कितनी घट रही है, यह नहीं बता पाता। इसका अधिकतम मूल्य 1 व न्यूनतम मूल्य 0 होता है। जहां 1 अधिकतम असमानता एवं 0 पूर्ण समानता को अभिव्यक्त करता है। इन दोनों ही मानों का प्रयोग वर्ल्ड बैंक करता है एवं इन्हीं के आधार पर वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट प्रदर्शित की जाती है।
2. निरपेक्ष निर्धनता
निरपेक्ष दृष्टि से उन लोगों को गरीब कहा जाता है, जिनका निर्वाह स्तर इतना नीचा होता है कि जीवन की न्यूनतम आवश्यकताएं भी पूरी नहीं हो पातीं। इन आवश्यकताओं को शरीर चलाने के लिए जरूरी न्यूनतम पोषक आहार के रूप में व्यक्त किया जाता है। गरीब लोगों की पहचान के लिए भारत में इसी मापदण्ड को अपनाया गया है। इस संदर्भ में योजना आयोग द्वारा प्रतिदिन के हिसाब से आवश्यक आहार की न्यूनतम मात्रा ग्रामीण क्षेत्र के लिए 2400 कैलोरी और शहरी क्षेत्रों के लिए 2100 कैलोरी निर्धारित की गई है।
गरीबी रेखा का निर्धारण
गरीबी रेखा का निर्धारण आय और उपभोग के रूप में किया जाता है लेकिन आय की तुलना में उपभोग गरीबी रेखा सीमा का एक बेहतर पैरामीटर है। इसका कारण यह है कि उपभोग किसी व्यक्ति द्वारा वस्तुओं तथा सेवाओं के वास्तविक प्रयोग को दिखलाता है, जबकि आय केवल खरीदने की क्षमता व्यक्त करती है। इसके अतिरिक्त आय के वितरण आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं जबकि उपभोग से संबंधित व्यापक आंकडे उपलब्ध हैं। यही कारण है कि भारत में गरीबी रेखा की सीमा निर्धारण के लिए उपभोग को आधार के रूप में अपनाया गया है।
गरीबी रेखा निर्धारण की कार्यविधि
भारत में गरीबी रेखा निर्धारित करने के लिए उपभोग की सीमा को आधार बनाया जाता है। इसके लिए निम्नलिखित कार्यविधि अपनायी जाती है-
- उपभोग सीमा का अनुमान लगाते समय, सार्वजनिक व्यय अथवा उपभोक्ता वस्तुओं पर सरकार द्वारा किए जाने वाले व्यय को शागिल नहीं किया जाता। केवल निजी उपयोग व्यय को ही ध्यान में रखा जाता है। निजी उपभोग व्यय घटकों के रूप में न केवल खाद्य पदार्थ मदों को बल्कि गैर-खाद्य पदार्थों को भी ध्यान में रखा जाता है।
- खाद्य पदार्थ मदों के उपभोग के लिए कैलोरी के प्रति व्यनित उपभोग का अनुमान किया जाता है। आवृत्ति के बँटवारे को उस विभिन्न वर्ग अंतराल के साथ ग्रहण किया जाता है जो कैलोरी उपभोग की सीमा तथा कैलोरी उपभोग के स्तर को प्रकट करती है।
- प्रत्येक वर्ग अंतराल के बदले आवृत्ति को रिकार्ड किया जाता है। प्रत्येक आवृत्ति एक विशेष उपभोग-वर्ग से संबंधित शीर्षक की संख्या को प्रकट करती है।
- अंततः व्यक्ति गणना अनुपात निकाला जाता है जो निर्धन तथा गैर-निर्धन को (निर्धनता रेखा सीमा से संबंधित) ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों के लिए अलग से दर्शाता है। यह अनुपात निर्धनता रेखा से नीचे की जनसंख्या के प्रतिशत को प्रकट करता है।
गरीबी रेखा के निर्धारण तथा गरीबी के अनुमान के संदर्भ में सामान्यतया योजना आयोग के ही माप तथा दृष्टिकोण को स्वीकार किया जाता है।
निर्धनता का लकड़ावाला समिति की अनुशंसाएं
निर्धनता के उचित मापन हेतु वर्ष 1989 में योजना आयोग के निर्देशन में प्रो. डी.टी. लकड़ावाला की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ दल का गठन किया जिसने वर्ष 1993 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। जिसे योजना आयोग ने 9वीं पंचवर्षीय योजना में स्वीकार कर लिया, जिसने प्रत्येक राज्य के मूल्य स्तर के आधार पर अलग-अलग राज्यों के लिए भिन्न-भिन्न निर्धनता रेखा का निर्धारण किया जो वर्तमान में 35 है।
इस आयोग ने शहरी एवं ग्रामीण परिस्थितियों को ध्यान में रखकर अलग-अलग मूल्य सूचकांकों का निर्धारण किया जो इस प्रकार है:-
ग्रामीण क्षेत्र में निर्धनता रेखा- इसमें कृषि श्रमिकों के लिए उपभोक्ता मूल्य-सूचकांक विकसित किया (Consumer Price Index for Agricultural Labour-CPIAL)
शहरी क्षेत्र में निर्धनता रेखा- औद्योगिक श्रमिकों के आधार पर (Consumer Price Index for Industrial Workers-CPIIW)
जबकि इससे पहले एक राष्ट्रीय मूल्य निर्देशांक प्रयोग किया जाता था। इस समिति की अनुशंसाओं के आधार पर राज्य विशिष्ट निर्धनताओं के आधार पर एक अखिल भारतीय निर्धनता रेखा का निर्धारण किया गया तथा आठवीं योजना में कैलोरी मानक (ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 तथा शहरी क्षेत्रों में 2100) तथा उपभोग व्यय (ग्रामीण क्षेत्रों में 49.09 रुपया तथा शहरी क्षेत्रों में 56.64 रुपया प्रति व्यक्ति प्रतिमाह) स्वीकार किया गया।
देश में निर्धनता का आकलन योजना द्वारा राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन द्वारा प्रतिव्यक्ति मासिक उपभोग व्यय (घरेलू, उपभोक्ता व्यय) के आधार पर किया जाता है।
गरीबी पर तेंदुलकर समिति का बहुआयामी दृष्टिकोण (2005)
गरीबी रेखा को अधिक तर्कसंगत एवं लोगों के लिए उचित जीवन स्तर को ध्यान में रखकर तेंदुलकर समिति का गठन किया गया। इस समिति ने गरीबी मापन के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण को अपनाया जो जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं। इस समिति ने बी.पी.एल. के निर्धारण के खाद्यान्नों के अलावा शिक्षा, स्वास्थ्य, बुनियादी संरचना, स्वच्छ वातावरण, महिलाओं को काम और बच्चों की लाभ तक पहुंच इन छ: बुनियादी कारकों को भी सम्मिलित किया एवं अलघ कमेटी द्वारा शहरी और ग्रामीण क्षेत्र के संदर्भ में अलग-अलग कैलोरी मानकों को छोड़कर खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा निर्धारित 1800 कैलोरी के मानक को स्वीकार किया एवं NSSO के निजी उपभोक्ता पारिवारिक व्यय को आधार बनाकर नयी गरीबी रेखा निर्धारित की जिसमें वर्ष 2004-05 के लिए गांवों में रहने वाले लोगों के संदर्भ में 12 रुपये प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन अर्थात् 360 रुपये प्रतिमाह एवं शहरी क्षेत्रों में 17 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति दिन (PPPD) अर्थात् 510 रुपये उपभोग व्यय को गरीबी रेखा का मानक स्वीकार किया।
इस मानक को आधार बनाकर समिति ने वर्ष 2004-05 में 37.2% गरीबी का आकलन किया जिसे आधार बनाकर योजना आयोग ने वर्ष 2009-10 में ग्रामीण क्षेत्रों में 28.65 रुपये प्रतिदिन निर्धारित किया एवं गरीबी का आंकड़ा 29.8% बताया एवं जून, 2011 में योजना आयोग ने मूल्य के आधार पर ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 26 रुपये प्रतिदिन तथा शहरी क्षेत्रों के लिए 32 रुपये प्रतिदिन उपभोग व्यय का मानक निर्धारित किया। इस रिपोर्ट के अनुसार इस अवधि के दौरान बी.पी.एल. आबादी के अनुपात में प्रतिवर्ष 1.5% की गिरावट आई जबकि 1992-93 से 2003-04 के दौरान गिरावट की दर 0.7% रही।
गरीबी के कारण
आर्थिक कारण
- व्यापक बेरोजगारी तथा अल्प बेरोजगारी
- उत्पादक रोजगार का अभाव
- परिसम्पत्तियों का अभाव
- मूल्य वृद्धि की तुलना में आय में कम वृद्धि
- पूंजी एवं कौशल का अभाव जिससे उत्पन्न गरीबी तथा गरीबी का दुष्चक्र
- प्रति व्यक्ति आय कम
- व्यावसायिक व तकनीकी शिक्षा का अभाव तथा उपक्रमों की कमी
- निम्न स्तरीय आर्थिक गतिविधियों में संलग्नता
- निम्न मजदूरी दर
ऐतिहासिक कारण
- विऔद्योगीकरण
- ग्रामीण तथा शहरी हस्तशिल्प तथा कुटीर उद्योगों का पतन
- धन का निष्कासन
सामाजिक कारण
- अशिक्षा
- सामाजिक एवं धार्मिक संकीर्णता
- सामाजिक कुरीतियां यथा- दहेज प्रथा, शादी ब्याह में दिखावे की प्रवृत्ति
- संयुक्त परिवार प्रणाली
- लैंगिक असमानता-मानव श्रम का एक बड़ा वर्ग यानि महिला घर की चारदीवारी में सीमित
जनांकिकीय कारण
- तीव्र जनसंख्या वृद्धि
- उच्च शिशु मृत्यु दर
विभिन्न योजनाकाल में गरीबी उन्मूलन की रणनीति
स्वतंत्रता के पश्चात भारत के आधुनिकीकरण एवं विकास के मार्ग पर गरीबी सबसे बड़ी समस्या के रूप में उपस्थित थी। यही कारण है कि विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में लोगों के आय स्तर को बढ़ाने एवं गरीबी उन्मूलन के प्रयासों को प्राथमिकता दी गयी। यद्यपि पांचवीं पंचवर्षीय योजना तक गरीबी उन्मूलन के संदर्भ में पृथक व विशिष्ट नीति के स्थान पर इसे अन्य योजनाओं की सहायक नीति के रूप में ही देखा गया।
विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में गरीबी उन्मूलन की दिशा में किये गये कार्यों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है:-
प्रथम पंचवर्षीय योजना
प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि क्षेत्र को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी थी। भारत की अधिकांश जनसंख्या भी कृषि आधारित अर्थव्यवस्था पर ही आश्रित थी। ऐसे में यह माना गया कि इससे गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम को गति मिलेगी।
इस योजनाकाल के दौरान प्रति व्यक्ति आय में 1.8 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी। इसी योजनाकाल में सामुदायिक विकास कार्यक्रम तथा राष्ट्रीय प्रसार सेवा को भी प्रारंभ किया गया। ये कार्यक्रम पूरी तरह तो सफल नहीं रहे, परन्तु इससे निर्धनता को दूर करने हेतु नयी दिशा अवश्य मिली।
द्वितीय पंचवर्षीय योजना
द्वितीय पंचवर्षीय योजना में विकास की एक ऐसी प्रणाली को बढ़ावा देने की कोशिश की गयी, जिससे देश में समाजवादी व्यवस्था की स्थापना हो सके। इस योजनाकाल में निम्नलिखित लक्ष्य निर्धारित किये गये।
- राष्ट्रीय आय में 25 प्रतिशत की वृद्धि प्राप्त करना।
- बुनियादी तथा भारी उद्योगों के विकास पर जोर देते हए तीव्र औद्योगीकरण।
- रोजगार के अवसरों को बड़े पैमाने पर बढ़ाना।
- आय एवं संपत्ति में असमानता घटाना और आर्थिक शक्ति का बेहतर बंटवारा।
इस योजनावधि में अनेक औद्योगिक संयंत्र शुरू किये गये, जिससे व्यापक मात्रा में रोजगार सृजन भी हुआ।
तृतीय पंचवर्षीय योजना
तीसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान देश युद्ध, अकाल और खाद्यान्न संकट का सामना कर रहा था। ऐसे में कृषि पर पुनः सर्वाधिक बल दिया गया। इस योजनाकाल में देश के मानव संसाधन का पूरी तरह उपयोग तथा रोजगार के अवसरों के पर्याप्त विस्तार को सुनिश्चित करने पर बल दिया गया। साथ ही समानता के बेहतर अवसरों का विकास तथा और संपत्ति के मामले में अंतर घटाने को भी प्राथमिकता दी गयी। इस योजनावधि में प्रति व्यक्ति आय वृद्धि दर 0.2 प्रतिशत रही।
चौथी पंचवर्षीय योजना
चौथी पंचवर्षीय योजना का उद्देश्य कृषि उत्पादन तथा विदेशी सहायता में अनिश्चितता की स्थिति को दूर करते हुए विकास की गति को बढ़ावा देना था। इसमें समानता और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों के माध्यम से जीवन स्तर को उठाने की कोशिश की गयी। इस योजना में विशेष रूप से रोजगार और शिक्षा के प्रावधानों के माध्यम से समाज के पिछड़े और दुर्बल वर्ग की स्थिति में सुधार पर ध्यान दिया गया। इस योजनाकाल में अनेक कल्याणकारी योजनाओं को शुरू किया गया।
पांचवीं पंचवर्षीय योजना
गरीबी उन्मूलन की दिशा में पांचवीं पंचवर्षीय योजना सर्वाधिक महत्वपूर्ण रही। इस योजनावधि में पहली बार गरीबी उन्मूलन एवं आत्मनिर्भरता की प्राप्ति को प्रमुख प्राथमिकता का विषय माना गया। इस योजना का मुख्य उद्देश्य गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की उपभोग की क्षमता को बढ़ाना था। इस योजनावधि में प्रति व्यक्ति आय में 3.1 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी। इस योजनाकाल में ही न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम, काम के बदले अनाज कार्यक्रम आदि शुरू किया गया।
छठी पंचवर्षीय योजना
छठी योजना का सर्वप्रमुख उद्देश्य गरीबी दूर करना था। इस योजना में ऐतिहासिक 'गरीबी उन्मूलन' का नारा दिया गया। इसके लिए यह रणनीति निर्धारित की गयी कि एक साथ कृषि और उद्योग दोनों के बुनियादी ढांचे को मजबूत किया जाए। उल्लेखनीय है कि गरीबी उन्मूलन संबंधी सभी बड़े तथा महत्वपूर्ण कार्यक्रम इसी योजनावधि में शुरू किये गये। इसमें आई.आर.डी.पी. ट्रायसेम, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम, ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारंटी कार्यक्रम, ड्वाकरा आदि प्रमुख थे। इसी योजनावधि में योजना आयोग द्वारा नियुक्त न्यूनतम आवश्यकता तथा प्रभावपूर्ण उपभोग मांग के पूर्वानुमान के संबंध में नियुक्त कार्यदल ने गरीबी निदेशांक तैयार किया तथा गरीबी रेखा को ग्रामीण क्षेत्र में प्रति व्यक्ति 2400 कैलोरी तथा शहरी क्षेत्र में 2100 कैलोरी के रूप में निर्धारित किया गया।
सातवीं पंचवर्षीय योजना
इस योजना का लक्ष्य खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि, रोजगार के अवसरों और उत्पादकता का विकास, आधुनिकीकरण, आत्मनिर्भरता और सामाजिक न्याय की मूलभूत अवधारणाओं के तहत विकास करना था। इस योजना काल में बेरोजगारी और गरीबी दूर करने के लिए पहले से चल रहे कार्यक्रमों के अतिरिक्त जवाहर रोजगार योजना जैसे विशेष कार्यक्रम शुरू किए गए।
आठवीं पंचवर्षीय योजना
भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के पश्चात् निर्मित इस योजना का मुख्य उद्देश्य मानव संसाधन विकास था। इस योजनाकाल में वर्ष 1993 में शिक्षित बेरोजगारों के लिए स्वरोजगार उपलब्ध कराने हेतु प्रधानमंत्री रोजगार योजना शुरू की गयी।
नौवीं पंचवर्षीय योजना
इस योजना का मुख्य उद्देश्य सामाजिक न्याय और समानता के साथ आर्थिक संवृद्धि था। इस योजना में सात बुनियादी सेवाओं पर मुख्य बल दिया गया, जिसमें शुद्ध पेयजल, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता, सभी के लिए प्राथमिक शिक्षा बेघर गरीबों के लिए घर, बच्चों के लिए पोषक आहार, सभी गांवों और बस्तियों के लिए सड़क तथा गरीबों के लिए सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को बेहतर बनाना शामिल था। इस योजना में गरीबी उन्मूलन और पर्याप्त उत्पादक रोजगार का सृजन करने के लिए कृषि और ग्रामीण विकास को प्राथमिकता दी गयी थी। इस योजनावधि में गरीबी रेखा से नीचे की जनसंख्या का अनुपात 1997-98 के 29.18 प्रतिशत से घटाकर योजनावधि के अंत तक 17.98 प्रतिशत तक लाने तथा पांच करोड़ रोजगार के अवसर सृजित करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था।
दसवीं पंचवर्षीय योजना
इस योजना में श्रम शक्ति के तीव्र विकास को स्वीकार किया गया। विकास की तत्कालीन दर और उत्पादन के क्षेत्र में मजदूरों की बढ़ती तादाद को देखते हुए देश में बेरोजगारी बढ़ने की संभावना व्यक्त की जा रही थी। इसे ध्यान में रखते हुए इस योजनावधि में रोजगार के पांच करोड़ अवसर सृजित करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया। वहीं दसवीं योजना में आर्थिक विकास के लाभ से आम लोगों की जिंदगी बेहतर बनाने के लिए वर्ष 2007 तक गरीबी का अनुपात 26 प्रतिशत लाना निर्धारित किया गया।
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना
इस योजना का दृष्टिकोण तीव्रतर और अधिक समावेशी विकास की ओर निर्धारित किया गया। इस योजना में निर्धनता के अनुपात को वर्ष 2012 तक 15 प्रतिशत लाना निर्धारित किया गया। साथ ही बेरोजगारी के अनुमान के संबंध में चालू दैनिक अवस्था को आधार बनाते हुए यह लक्ष्य रखा गया कि ग्यारहवीं योजना के दौरान होने वाली श्रम शक्ति में वृद्धि को उच्च गुणवत्ता युक्त रोजगार उपलब्ध कराया जाएगा। इसी योजनावधि में गरीबी रेखा के निर्धारण के लिए वर्ष 2008 में सुरेश तेन्दुलकर की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया था।
बारहवीं पंचवर्षीय योजना
बारहवीं पंचवर्षीय योजना का मुख्य उद्देश्य तीव्र संपोषणीय और अधिक समावेशी विकास है। इस योजनावधि में निर्धनता में 10 प्रतिशत की कमी लाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है।
गरीबी निवारण की युक्ति का आलोचनात्मक मूल्यांकन
भारतीय योजनाओं में अपनाई गई गरीबी निवारण युक्ति की निम्नलिखित आधार पर आलोचना की गई है:
- गरीबी निवारण कार्यक्रम का पूरा ध्यान अतिरिक्त आय के सृजन पर केन्द्रित रहा है। इसलिए दीर्घकालीन आधार पर गरीबी को दूर करने के लिए आवश्यक सामाजिक आगतों की आपूर्ति पर ध्यान नहीं दिया गया है। इसका अर्थ यह है कि परिवार कल्याण, पौष्टिक आहार, सामाजिक सुरक्षा तथा न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति की ओर ध्यान नहीं दिया गया है।
- यह कार्यक्रम में अपाहिज, बीमार तथा उत्पादक रूप से काम करने के अयोग्य लोगों के लिए कुछ नहीं किया गया है। इन लोगों की समस्या अलग है क्योंकि ये सामान्य आर्थिक गतिविधियों में हिस्सा नहीं ले सकते।
- आय तथा रोजगार प्रदान करने वाले गरीबी निवारण कार्यक्रम गरीबों को अतिरिक्त आय उपलब्ध कराते हैं जिसका उपयोग ये लोग और खाद्यान्नों की खरीदारी के लिए कर सकते हैं। परन्तु ये कार्यक्रम इस बात को निश्चित नहीं कर पाते कि गरीबी लोगों को वर्ष पर्यन्त खाद्यान्नों की उपयुक्त मात्रा में प्राप्त हो सके क्योंकि यह तो खाद्यान्नों की कीमतों, पूर्ति की सहजता तथा आय प्राप्त होने के समय पर निर्भर करता है।
- जनसंख्या के लगातार बढ़ते हुए दबाव की परिस्थिति में जबकि खेतों का आकार लगातार छोटा होता जा रहा है, स्व-रोजगार उद्यमों पर या मजदुरी के रोजगार कार्यक्रमों पर निर्भरता सही नहीं है।
सी.टी. कुरियन ने गरीबी निवारण की युक्ति की ज्यादा सारभूत एवं बुनियादी आलोचना प्रस्तुत की है। कुरियन के अनुसार विद्यमान संरचना के रहते हुए चाहे राजनैतिक व प्रशासनिक ईमानदारी से प्रयास किए जाएं तो भी गरीबी निवारण में सफलता नहीं मिलेगी। इसका कारण यह है कि विद्यमान संरचना में साधनों पर निजी अधिकार है, उनका वितरण असमान है, तथा उनका प्रयोग और साधनों पर नियंत्रण पाने के लिए किया जाता है। इस प्रकार की संरचना में संवृद्धि एवं वितरण की प्रक्रियाओं का निर्धारण साधनों व शक्ति के वितरण से ही होगा। कई बार संरचनात्मक कारकों का प्रभाव इतना गहरा व मजबूत होगा कि अत्यन्त सावधानी से बनाई गई युक्ति व नीतियां भी न केवल असफल सिद्ध होंगी परन्तु उनका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
उच्च आर्थिक संवृद्धि दर तथा जी.डी.पी. का बड़ा आकार, बेरोजगारी, गरीबी, आर्थिक विषमता तथा विभिन्न प्रकार की सामाजिक तथा आर्थिक असुरक्षाओं की आवश्यक दशा अवश्य है, पर केवल इसके द्वारा सामाजिक क्षेत्र की समस्याओं का समाधान सम्भव नहीं। यह मानकर चलना बहुत अधिक महत्त्वाकांक्षी होगा कि उच्च संवृद्धि दर की प्राप्ति बेरोजगारी, गरीबी तथा आर्थिक विषमता का निवारण कर लेगी। ट्रिकिल डाऊन की परिकल्पना की सफलता वास्तव में इस बात पर निर्भर करेगी कि विनियोग का रोजगार गुणांक अत्यन्त ही कम हो तथा रोजगार लोच तेजी से नीचे गिर रही हो, वहां बेरोजगारी तथा गरीबी की समस्या के समाधान के लिए सरकारी पहल तथा प्रयास अपरिहार्य है। यह आवश्यक है कि सरकार बजट के द्वारा लक्षित वर्ग के लिय मेरिट वस्तुओं की व्यवस्था करे। योजनाओं के प्रारम्भ में विशेष रूप से पाँचवी पंचवर्षीय योजना से सरकार ने इस दिशा में अनेक पहल की है, अनेक योजनायें कार्यक्रम तथा नीतियाँ क्रियान्वित की हैं पर चूँकि कल्याण, बेरोजगारी, गरीबी, आर्थिक विषमता, सामाजिक तथा आर्थिक सुरक्षा एवं समावेशी विकास इतने परस्पर जुड़े हैं कि इनसे सम्बन्धित कार्यक्रमों तथा स्कीमों को अलग-अलग कठोर वर्गों में नहीं रख सकते हैं फिर भी हम इनका अध्ययन निम्नांकित वर्गों में रखकर कर सकते हैं-
- बेरोजगारी के निवारण तथा रोजगार सृजन से सम्बन्धित योजनायें।
- गरीबी (निर्धनता) उन्मूलन से सम्बन्धित कार्यक्रम।
- सामाजिक तथा आर्थिक सुरक्षा कार्यक्रम।
- महिला एवं बाल विकास या महिला सशक्तिकरण से सम्बन्धित कार्यक्रम।
- भौतिक तथा सामाजिक अवस्थापना जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य को विकसित करने से सम्बन्धित कार्यक्रम।
ट्रिकल डाउन प्रभाव
कुछ अर्थशास्त्रियों ने यह तर्क दिया है कि आर्थिक संवृद्धि का लाभ स्वतः रिस-रिसकर जनसंख्या के सभी वर्गों को प्राप्त हो जाता है जिससे गरीबी आपने आप कम हो जाती है, इसे 'रिसाव-प्रभव' (trickle down effect) कहा जाता है।
भारतीय कृषि के संदर्भ में रिसाव-प्रभाव का अर्थ यह लिया "जाता है कि भूमि सुधारों के बिना भी कृषि उत्पादन में वृद्धि लाकर गरीबी के स्तर को कम किया जा सकता है। एम.एस. आहलूवालिया के अनुसार, भारत में इस तरह का रिसाव-प्रभाव काम कर रहा है। इसलिए कृषि उत्पादन में वृद्धि व प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होने से ग्रामीण क्षेत्र में गरीबी अवश्य कम होगी। परन्तु विद्यमान तथ्यों के आधार पर आहलूवालिया यह सिद्ध करने में सफल नहीं होते कि इस तरह का रिसाव-प्रभाव सफल हुआ।
उनके अनुसार, "आर्थिक संवृद्धि दर इतनी कम रही है कि गरीबी के स्तर में कोई कमी नहीं हो पाई है। 1956-57 से 1977-78 के बीच वास्तविक कृषि आय केवल 2 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से ही बढ़ पाई थी जो ग्रामीण जनसंख्या में वृद्धि की दर से जरा-सा ही अधिक थी। इसलिए ग्रामीण जनसंख्या के लिए प्रति व्यक्ति कृषि निवल घरेलू उत्पाद कोई स्पष्ट प्रवृत्ति नहीं दिखाता।"
इन तथ्यों के आधार पर टी.एन. श्रीनिवासन ने यह तर्क दिया है कि संवृद्धि की दर इतनी कम थी कि रिसाव-प्रभाव का गरीबी पर कोई असर नहीं पड़ा। आहलुवालिया का अध्ययन उन लोगों के लिए उपयुक्त है जो संस्थागत परिवर्तनों में या तो विश्वास नहीं रखते या फिर इन परिवर्तनों को राजनैतिक कारणों से ठीक नहीं समझते। ये लोग यह तर्क दे सकते हैं कि यदि कृषि में विकास की दर को काफी तेजी से बढाने में सफलता मिल जाए तो रिसाव-प्रभाव अवश्य काम करेगा और संवृद्धि से गरीब जनता को भी लाभ मिलेगा।
परन्तु रिसाव-प्रभाव की संभाव्यता (potential) पर कई अर्थशास्त्रियों ने अपनी शंकाएं व्यक्त की हैं। इस सन्दर्भ में यह कहा जाता है कि हरित क्रांति से पूर्व की अवधि में (अर्थात् 1965-66 तक) कृषि में प्रसार का गरीब जनता के लिए आय सूजन के साथ, हो सकता है, कुछ सम्बन्ध रहा हो क्योंकि कृषि में विकास मुख्य रूप से कृषि के अधीन और क्षेत्र लाने के कारण हुआ था जिससे रोजगार के अवसर बढ़े और गरीब लोगों को फायदा हुआ। परन्तु 1965-66 के बाद नई कृषि क्रांति के आने से गुणात्मक परिवर्तन हुआ। अब कृषि उत्पादन में वृद्धि और अधिक भूमि के कारण नहीं बल्कि गहन खेती (intensive cultivation) के कारण होने लगी। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में ऐसे परिवर्तन हुए जो गरीबों के लिए हितकर नहीं थे। इसलिए रिसाव-प्रभाव कारगर नहीं रहे।
बर्धन ने इस प्रकार के परिवर्तनों की निम्नलिखित सूची प्रस्तुत की है: -
- मशीनरी द्वारा श्रम का प्रतिस्थापन जिसके कारण रोजगार के अवसर बढ़ नहीं पाए।
- कई बड़े भू-स्वामियों ने अपने खेतों पर काम करने वाले छोटे-छोटे काश्तकारों को जमीन से बेदखल कर दिया और नई कृषि तकनीकों से लाभ कमाने के लिए स्वयं खेती करने लगे।
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