सरोजिनी नायडू
सरोजिनी नायडू के बारे में |
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नाम |
सरोजनी नायडू |
अन्य नाम |
भारत कोकिला |
जन्म |
13 फरवरी 1879 |
स्थान |
हैदराबाद आंध्रप्रदेश , भारत |
पिता |
अघोरनाथ
चट्टोपाध्याय |
माता |
वराड़ सुन्दरी देवी चट्टोपाध्याय |
पति |
श्री मुत्तयला
गोविंदराजुलु नायडु |
बच्चे |
जयसुर्य ,
पद्मजा , रणधीर
और लीलामणि |
म्रत्यु |
2 मार्च 1949 |
स्थान |
इलाहबाद उत्तरप्रदेश , भारत |
सरोजिनी नायडू का प्रारंभिक जीवन
इनके पिता अघोरनाथ चट्टोपाध्याय एक नामी विद्वान थे उन्होंने हैदराबाद के निजाम कॉलेज को प्रशासित किया तथा माँ कवयित्री ,कविता में विपुल लेखक थीं और बांग्ला में लिखती थीं। वह आठ भाई बहनों में सबसे बड़ी थी। उन्होंने 12 वर्ष की अल्पायु में ही 12हवी की परीक्षा अच्छे अंकों के साथ उत्तीर्ण की और 13 वर्ष की आयु में लेडी ऑफ दी लेक नामक कविता रची।सरोजिनी नायडू ने मद्रास विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की बचपन से ही कुशाग्र-बुद्धि होने के कारण आगे चलकर अच्छी प्रवक्ता बनी। सर्जरी में क्लोरोफॉर्म की प्रभावकारिता साबित करने के लिए हैदराबाद के निज़ाम द्वारा प्रदान किए गए दान से "सरोजिनी नायडू" को इंग्लैंड भेजा गया था सरोजिनी नायडू को पहले लंदन के किंग्स कॉलेज और महबूब अली खान द्वारा स्थापित निक्सम चैरिटेबल ट्रस्ट ने यहां कैंब्रिज में गिर्टन कॉलेज की पढ़ाई करने का मौका दिया।
इंग्लैंड में सरोजनी का परिचय प्रसिद्ध साहित्यकार एडमंड गॉस से हुआ। सरोजिनी की कविता लिखने में रूचि देखकर उन्होंने भारतीय समाज को ध्यान में रखकर लिखने का सुझाव दिया। सरोजिनी ने शिक्षा पूरी करने के बाद इंग्लैड से वापस आने पर सरोजिनी का विवाह गोविन्दराजुल नायडू के साथ हुआ। गोविन्दराजुल नायडू हैदराबाद के रहने वाले थे और सेना में डॉक्टर थे। दंपति के पांच बच्चे हुये। उनमें से एक-पेडीपति पद्मजा स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुई और भारत छोड़ो आंदोलन का हिस्सा बनी।
सरोजिनी नायडू की कविता लेखन में रूचि
"माँ मैंने एक कविता लिखी है सुनोगी?" माता ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा, "लेकिन तुम तो गणित का प्रश्न हल कर रही थी। हाँ कर रही थी पर वह समझ में नही आया। अभी तो एक कविता लिखी है।" बेटी के बार-बार कहने पर माँ उनकी कविता सुनने बैठ गयी उसी समय सरोजिनी के पिता भी आ गये। ग्यारह वर्ष की बिटिया के मुख से इतनी सुन्दर, सुरीली कविता सुनकर माता- पिता गद्गद हो गए। बेटी को शाबाशी देते हुए उन्होंने कहा, "अरे तू तो गाने वाली चिड़िया जैसी है। माता- पिता की यह बात सच हुई। एक कवि के रूप में उनके काम ने उन्हें महात्मा गांधी से ' भारत की कोकिला ' की उपाधि अर्जित की।
इंग्लैंड में सरोजिनी के तीन कविता संग्रह प्रकाशित हुए।
- द गोल्डेन थ्रेश होल्ड
- द ब्रोकेन विंग
- द सेप्टर्ड फ्लूट
द गोल्डेन थ्रेश होल्ड की कुछ पंक्तियाँ "लिए बाँसुरी हाथों में हम घूमे गाते-गाते मनुष्य सब हैं बन्धु हमारे, जग सारा अपना है"
गोपाल कृष्ण गोखले तथा महात्मा गाँधी के सम्पर्क में आने के बाद सरोजिनी नायडू राष्ट्रप्रेम तथा मातृभूमि को सम्बोधित कर कवितायें लिखने लगीं।
सरोजिनी की कविता "बर्ड ऑफ टाइम" तथा "ब्रोकन विंग" ने उन्हें एक सुप्रसिद्ध कवयित्री बना दिया।
"श्रम करते हैं हम कि समृद्ध हो तुम्हारी जागृति का क्षण हो चुका जागरण अब देखो, निकला दिन कितना उज्ज्वल!"
'पंख डॉन' - 1927 में उनके द्वारा लिखी गई कविताओं का संग्रह - 1961 में उनकी बेटी पद्मजा नायडू द्वारा प्रकाशित किया गया था। 'भारत का उपहार' अपनी देशभक्ति के लिए प्रतिष्ठित है और 1915 भारत के राजनीतिक माहौल का वर्णन करता है।
सरोजिनी नायडू की भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका
सरोजिनी चट्टोपाध्याय नायडू भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक महत्वपूर्ण हस्ती थीं ।
सरोजिनी नायडू की भेंट गाँधी जी से हुई। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में स्वयं सेवक के रूप में काम किया।महात्मा गांधी, गोपाल कृष्ण गोखले और रवींद्रनाथ टैगोर जैसे नेताओं के साथ उनकी बैठक ने उन्हें ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ काम करने और सामाजिक सुधार की दिशा में प्रेरित किया।
गोपाल कृष्ण गोखले सरोजिनी नायडू के अच्छे मित्र थे। वे उस समय भारत को अंग्रेजी सरकार से मुक्त कराने का कार्य कर रहे थे। सरोजिनी नायडू गोपाल कृष्ण गोखले के कार्य से प्रभावित हुईं। उन्होंने कहा, " देश को गुलामी की जंजीरों में जकड़ा देखकर कोई भी ईमानदार व्यक्ति बैठकर केवल गीत नहीं गुनगुना सकता। कवयित्री होने की सार्थकता इसी में है कि संकट की घड़ी में, निराशा और पराजय के क्षणों में आशा का सन्देश दे सकूँ।" सरोजिनी नायडू का ज्यादातर समय राजनीतिक कार्यो में व्यतीत होता था। वे कांग्रेस की प्रवक्ता बन गयीं। उन्होंने देश भर में घूम-घूम कर स्वाधीनता का सन्देश फैलाया।
सरोजिनी नायडू ने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जोर दिया। उन्होंने अशिक्षा, अज्ञानता और अन्धविश्वास को दूर करने के लिए लोगों से अपील (निवेदन) की । उनका कहना था कि "देश की उन्नति के लिए रूढ़ियों, परम्पराओं, रीति-रिवाजों के बोझ को उतार फेंकना होगा।"
1905 में बंगाल के विभाजन के बाद सरोजिनी नायडू ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभानी शुरू की।
1925 ई० में जब वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गयीं तो गाँधी जी ने उत्साह भरे शब्दों में उनका स्वागत किया और कहा “पहली बार एक भारतीय महिला को देश की सबसे बड़ी सौगात मिली है।"
हृदय रोग से पीड़ित होते हुए भी सरोजिनी नायडू ने इंग्लैण्ड, अमेरिका आदि देशों का दौरा किया।
"नमक कानून तोड़ो आन्दोलन" में गाँधी जी की डाँडी यात्रा में उनके साथ रहीं। सरोजिनी नायडू अद्भुत वक्ता थीं। वे बोलना शुरू करतीं तो लोग उनके धारा प्रवाह भाषण को मन्त्र-मुग्ध होकर सुनते थे। उनके भाषण स्वतंत्रता की चेतना जगाने में जादू का काम करते थे।
1942 में गाँधी जी के भारत छोड़ो आन्दोलन में उन्होंने भाग लिया। आजादी की लड़ाई में उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा । अन्ततः भारत को पूर्ण स्वतंत्रता मिली। सरोजिनी नायडू उत्तर प्रदेश की राज्यपाल बनीं।
सरोजिनी नायडू जानती थीं कि नारी अपने परिवार, देश के लिए कितना महान कार्य कर सकती है।
नारी विकास को ध्यान में रखकर वे अखिल भारतीय महिला परिषद् (आल इण्डिया वूमेन कांफ्रेस) की सदस्य बनीं। विजय लक्ष्मी पंडित, कमला देवी चट्टोपाध्याय, लक्ष्मी मेनन, हंसाबेन मेहता आदि महिलायें इस संस्था से जुड़ी थीं।
सरोजिनी नायडू का व्यवहार बहुत सामान्य था। वे राजनीतिक एवं सामाजिक जिम्मेदारियों के बावजूद भी गीत और चुटकलों में आनन्द लिया करती थीं। युवा वर्ग की सुविधाओं की ओर उनका विशेष ध्यान था। सरोजिनी नायडू का विश्वास था कि सुदृढ़, सुयोग्य युवा पीढ़ी राष्ट्र की अमूल्य निधि है। सरोजिनी बहुत ही स्नेहमयी थीं। प्रकृति से उन्हें विशेष प्रेम था।
1915 और 1917 के बीच उन्होंने समाज कल्याण, महिलाओं की मुक्ति आदि पर व्याख्यान देने के लिए देश की लंबाई और चौड़ाई की यात्रा की।
30 जनवरी 1948 ई० को गाँधी जी की मृत्यु पर जब देश भर में उदासी छायी थी, सरोजिनी नायडू ने अपनी श्रद्धाञ्जलि में कहा, " मेरे गुरु, मेरे नेता, मेरे पिता की आत्मा शान्त होकर विश्राम न करे बल्कि उनकी राख गतिमान हो उठे। चन्दन की राख, उनकी अस्थियाँ इस प्रकार जीवन्त हो जायें और उत्साह से परिपूर्ण हो जायें कि समस्त भारत उनकी मृत्यु के बाद वास्तविक स्वतंत्रता पाकर पुनर्जीवित हो उठे।”
"मेरे पिता विश्राम मत करो, न हमें विश्राम करने दो। हमें अपना वचन पूरा करने की क्षमता दो। हमें अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने की शक्ति दो। हम तुम्हारे उत्तराधिकारी हैं, सन्तान हैं, सेवक हैं तुम्हारे स्वप्न रक्षक हैं। भारत के भाग्य के निर्माता हैं, तुम्हारा जीवनकाल हम पर प्रभावी रहा है। अब तुम मृत्यु के बाद भी हम पर प्रभाव डालते रहो।
सरोजिनी नायडू गवर्नर-जनरल बनीं
स्वाधीनता की प्राप्ति के बाद, देश को उस लक्ष्य तक पहुँचाने वाले नेताओं के सामने अब दूसरा ही कार्य था। आज तक उन्होंने संघर्ष किया था। किन्तु अब राष्ट्र निर्माण का उत्तरदायित्व उनके कंधों पर आ गया। कुछ नेताओं को सरकारी तंत्र और प्रशासन में नौकरी दे दी गई थी। उनमें सरोजिनी नायडू भी एक थीं। भारतीय स्वतंत्रता के बाद सरोजिनी नायडू उत्तर प्रदेश की पहली महिला राज्यपाल बनी। उत्तर प्रदेश की प्रथम महिला राज्यपाल हालांकि सरोजिनी नायडू रहीं लेकिन वे कार्यवाहक राज्यपाल की भूमिका में थीं और इस रूप में 15 अगस्त 1947 से 2 मार्च 1949 तक उन्होंने अपने दायित्वों का निर्वहन किया। वह विस्तार और जनसंख्या की दृष्टि से देश का सबसे बड़ा प्रांत था। उस पद को स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा, 'मैं अपने को 'क़ैद कर दिये गये जंगल के पक्षी' की तरह अनुभव कर रही हूँ।' लेकिन वह प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की इच्छा को टाल न सकीं जिनके प्रति उनके मन में गहन प्रेम व स्नेह था। इसलिए वह लखनऊ में जाकर बस गईं और वहाँ सौजन्य और गौरवपूर्ण व्यवहार के द्वारा अपने राजनीतिक कर्तव्यों को निभाया।
सरोजिनी नायडू की विरासत
1914 में इंग्लैंड में वे पहली बार गाँधीजी से मिलीं और उनके विचारों से प्रभावित होकर देश के लिए समर्पित हो गयीं। एक कुशल सेनापति की भाँति उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय हर क्षेत्र (सत्याग्रह हो या संगठन की बात) में दिया। उन्होंने अनेक राष्ट्रीय आंदोलनों का नेतृत्व किया और जेल भी गयीं। संकटों से न घबराते हुए वे एक धीर वीरांगना की भाँति गाँव-गाँव घूमकर ये देश-प्रेम का अलख जगाती रहीं और देशवासियों को उनके कर्तव्य की याद दिलाती रहीं। उनके वक्तव्य जनता के हृदय को झकझोर देते थे और देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए प्रेरित कर देते थे। वे बहुभाषाविद थी और क्षेत्रानुसार अपना भाषण अंग्रेजी, हिंदी, बंगला या गुजराती में देती थीं। लंदन की सभा में अंग्रेजी में बोलकर इन्होंने वहाँ उपस्थित सभी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया था।
सरोजिनी नायडू का निवास स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कई सुधारवादी विचारों का केंद्र था । उनके हैदराबाद स्थित आवास में शादी, शिक्षा, महिला सशक्तिकरण और राष्ट्रवाद से संबंधित विचारों पर विस्तार से चर्चा की गई । उनके परिवार में गौरतलब है कि इस तरह के विचारों में महिलाओं को उनका हक देने का आह्वान ऐसे समय में किया गया था, जब भारत में राजनीति में पुरुषों का वर्चस्व था। इसमें महिलाओं को शिक्षा में अच्छी तरह से शामिल करने के विचार भी शामिल थे।
2 मार्च 1949 को जब वे बीमार थीं, तब उसकी सेवा कर रही नर्स से सरोजिनी नायडू ने गीत सुनाने का आग्रह किया नर्स का मधुर गीत सुनते-सुनते वे चिरनिद्रा में सो गयीं। 2 मार्च 1949 को भारत कोकिला सदा के लिए मौन हो गयीं। इस दिन को स्वतंत्र भारत के अग्रणी कवि के रूप में मनाया जाता है । पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें श्रद्धाञ्जलि देते समय कहा था “सरोजिनी नायडू ने अपनी जिन्दगी एक कवयित्री के रूप में शुरू की थी। कागज और कलम से उन्होंने कुछ कवितायें ही लिखी थीं लेकिन उनकी पूरी जिन्दगी एक कविता, एक गीत थी सुन्दर मधुर कल्याणमयी"। 13 फरवरी 1964 को भारत सरकार ने उनकी जयंती के अवसर पर उनके सम्मान में 15 नए पैसे का एक डाकटिकट भी जारी किया। श्रीमती एनी बेसेन्ट की प्रिय मित्र और गाँधीजी की इस प्रिय शिष्या ने अपना सारा जीवन देश के लिए अर्पण कर दिया। इसके साथ ही उन्हें महिलाओं की मुक्ति, नागरिक अधिकारों औरउपनिवेशवाद विरोधी के बारे में सक्रियता के लिए भी याद किया जाता है।
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