अंग्रेजों ने भारत क्यों छोड़ा?
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल से भारत को स्वतंत्रता देने के लिए कहा गया, तो उन्होंने कहा था “मैं ब्रिटिश साम्राज्य के विघटन पर हस्ताक्षर करने के लिए सम्राट का प्रधानमंत्री नहीं बना हूँ।" प्रधानमंत्री सहित ब्रिटेन के अन्य कई महत्त्वपूर्ण नेता और पदाधिकारी भी यही मानते थे कि आने वाली कई दशकों तक भारत को स्वतंत्रता देने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता, परंतु युद्ध के तुरंत बाद ब्रिटेन की लेबर-सरकार को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सामने घुटने टेकने पड़े। यह एक महान् और आश्चर्यजनक ऐतिहासिक घटना थी। इसमें संदेह नहीं कि यदि अंग्रेजों का वश चलता, तो वे कुछ वर्षों तक भारत पर शासन कर सकते थे, लेकिन परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बन गईं कि उन्होंने भारत को मुक्त करना ही ठीक समझा।
अंग्रेजों के भारत छोड़ने के कारण
ब्रिटेन में लेबर पार्टी का सत्तारूढ़ होना
ब्रिटेन में लेबर पार्टी एक प्रगतिवादी दल है, जिसने शुरू से ही उपनिवेशों की स्वतंत्रता का समर्थन किया। उसने साम्राज्यवाद का सदैव विरोध किया।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद आम चुनावों में लेबर पार्टी भारी बहुमत से विजयी होकर सत्तारूढ़ हुई। अपने चुनाव घोषणा-पत्र में लेबर पार्टी ने जीतने और सत्तारूढ़ होने के बाद भारत को स्वतंत्रता देने की बात कही थी। जब ब्रिटिश जनता ने भारी बहुमत से लेबर पार्टी की भारत संबंधी नीति का समर्थन कर दिया, तो एटली-सरकार ने भारत को शीघ्र स्वतंत्रता देने के अपने वचन को पूरा करने का निश्चय किया। यदि ब्रिटेन के इस आम चुनाव से चर्चिल का अनुदार दल विजयी हो जाता, तो भारत की स्वतंत्रता में कुछ विलम्ब हो सकता था।
ब्रिटेन की दुर्बल स्थिति
द्वितीय महायुद्ध के कारण ब्रिटेन बहुत शक्तिहीन हो गया था और उसमें अब इतनी शक्ति नहीं रही थी कि वह दूर-दूर तक स्थित अपने उपनिवेशों की रक्षा कर सके। सैनिक और आर्थिक दृष्टि से अमेरिका पर आश्रित हो जाने के कारण ब्रिटेन अब द्वितीय श्रेणी का राष्ट्र रह गया था। अतएव भारतीय प्रशासन को संभालने में अपनी बची-खुची शक्ति लगाने के बजाय उसने भारत को स्वतंत्र कर देना ही अच्छा समझा।
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन
भारत में राष्ट्रीयता की भावना व्यापक रूप से फैल चुकी थी। युद्ध के बाद यह भावना अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी। अब इंग्लैंड में इतनी शक्ति नहीं रह गई थी कि 'भारत छोड़ो' जैसे आंदोलन का दमन कर सके। ब्रिटिश सरकार अब भली-भाँति समझ चुकी थी कि अनिच्छुक और विरोधी भारतीयों को आतंक द्वारा गुलाम बनाए रखना असंभव है, विशेषकर जब राष्ट्रीयता और देशभक्ति की भावनाएँ सेना और पुलिस में भी प्रविष्ट हो
गई थीं।
भारतीय सेना में राष्ट्रवाद की लहर
अंग्रेजों को अब यह विश्वास हो गया था कि भारतीय सेना उसके शासन के प्रति पूर्णतः निष्ठावान नहीं रही है। ब्रिटिश सरकार का अपनी भारतीय नीति में परिवर्तन करने का यह महत्त्वपूर्ण कारण था। लालकिले में आजाद हिंद फौज के तीन अधिकारियों पर सैनिक अदालत में चलाए जाने वाले मुकदमों की सैनिक और असैनिक क्षेत्रों में अभिव्यक्त रोषपूर्ण प्रतिक्रियाएँ तथा 1946 की नौ-सैनिक क्रांति इस बात का ठोस प्रमाण थी कि भारत की सेनाएँ अब ब्रिटिश शासन के इशारे पर अधिक समय तक नहीं चलेंगी।
न ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने कहा था, "इंग्लैण्ड भारतीयों को स्वतंत्रता दे रहा है, क्योंकि भारतीय सेना ब्रिटेन के प्रति वफादार नहीं रही है और ब्रिटेन भारत को अधीन रखने के लिए बहुत-सी सेनाएँ भारत में नहीं रख सकता।"
एशियाई राष्ट्रीय आंदोलन
भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति में एशिया का राष्ट्रीय जागरण भी एक कारण था। द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद डचों ने इंडोनेशिया और फ्रांसीसियों ने इंडो-चीन में फिर पैर जमाने के प्रयास किए, जिससे वहाँ प्रबल आंदोलन उठ खड़े हुए। बर्मा, मलाया आदि में भी राष्ट्रीय आंदोलन शुरू हो गए। एशिया के इस नव-जागरण और नवचेतना के फलस्वरूप भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का टिके रहना असम्भव था।
भारत पर लाभहीन शासन
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन के लिए भारत का शासन सिर का बोझ बन गया। इस समय तक भारत में उद्योग-धंधों का पर्याप्त विकास हो चुका था और ब्रिटिश माल का भारत में आयात कम हो गया था। ब्रिटेन सैकड़ों करोड़ पौंड का भारत का कर्जदार हो गया। ऐसी स्थिति में भारतीय उपनिवेश से ब्रिटेन को विशेष आर्थिक लाभ होने की आशा नहीं थी। अतः ब्रिटिश शासकों ने भारत को स्वतंत्र कर अपना सिर-दर्द दूर करने का निश्चय कर लिया। अंग्रेजों ने सोचा कि स्वेच्छा से भारत को स्वतंत्र कर वे भारतीयों और नई भारतीय सरकार की सहानुभूति और सद्भावना प्राप्त कर सकेंगे।
अंतर्राष्ट्रीय जनमत का दबाव
युद्ध के दौरान ही चीन, अमेरिका आदि ने ब्रिटेन पर दबाव डाला था कि वह भारत को स्वतंत्र कर दे। युद्ध के पश्चात् इन देशों के अतिरिक्त सोवियत संघ ने भारत की स्वतंत्रता का समर्थन किया। इसके अतिरिक्त विदेशों में अनेक भारतीयों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरूद्ध प्रचार कर भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में विश्व जनमत तैयार किया।
साम्यवाद का खतरा
धीरे-धीरे साम्यवाद ने भारत में प्रवेश करना आरंभ कर दिया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इसका प्रभाव अधिक बढ़ गया। ब्रिटिश शासकों को यह भय हुआ कि यदि उन्होंने लोकतांत्रिक सिद्धांतों में विश्वास करने वाली कांग्रेस से समझौता नहीं किया, तो उससे जनता का झुकाव साम्यवाद की ओर होने लगेगा। इस समय तक शीत-युद्ध आरम्भ हो चुका था। अत: भारत में साम्यवाद का प्रसार रोकना आवश्यक हो गया, जिससे भारत की नवीन सरकार
पश्चिमी गुट की ओर झुकी रहे।
ब्रिटिश जाति की सहानुभूति
बहुत-से अंग्रेजों की भारतीयों के प्रति सहानुभूति थी। ये लोग महसूस करते थे कि प्रथम तथा द्वितीय महायुद्ध में भारतीयों ने अंग्रेजों को विजयी बनाने में अपना पूरा सहयोग दिया था। इसके अतिरिक्त 1935 के अधिनियम के अंतर्गत प्रांतीय प्रशासन के संचालन में भी भारतीयों ने अपनी योग्यता का प्रदर्शन किया था। अतः इन लोगों का भी ब्रिटिश सरकार पर दबाव था कि भारत को स्वतंत्रता प्रदान करना ही उचित है।
कांग्रेस द्वारा विभाजन की स्वीकृति
भारतीय स्वतंत्रता की माँग का सबसे प्रबल विरोध मुस्लिम लीग की ओर से हो रहा था। जब तक पाकिस्तान की स्थापना न हो जाए तब तक मुस्लिम लीग किसी प्रस्ताव पर अपनी सहमति देने को तैयार नहीं थी। दूसरी ओर, कांग्रेस देश का विभाजन स्वीकार करने को तैयार नहीं थी। लेकिन परिस्थितिवश जब कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने माउंटबेटन योजना स्वीकार कर ली, तो भारतीय स्वतंत्रता का मार्ग खुल गया। अब अंग्रेजों के लिए यहाँ जमे रहने का कोई बहाना नहीं रह गया कि भारत में उनके चले जाने से अराजकता और गृह-युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।
राष्ट्रीय आन्दोलन एवं स्वतंत्रता की भावना
ब्रिटिश शासन के अंतर्गत कुछ ऐसे कार्य हुए जिसके कारण भारतीय स्वतंत्रता की प्राप्ति में पर्याप्त सहायता मिली। यद्यपि ब्रिटिश शासकों ने जान-बूझकर ऐसा प्रयास नहीं किया, फिर भी उनके कार्य भारतीयों की स्वतंत्रता के लिए उत्तरदायी हैं, जैसे प्रशासकीय एकता, यातायात व संचार के साधनों का विकास, शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी भाषा आदि। इन सब तत्त्वों ने भारतीयों में एकता की भावना का विकास किया और इसी से राष्ट्रीय आंदोलन को काफी बल मिला। दूसरी ओर, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने महात्मा गाँधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन को नवजीवन प्रदान किया। कांग्रेस ने सविनय अवज्ञा आंदोलन, अहिंसात्मक असहयोग आंदोलन, हड़ताल, जुलूस, भारत छोड़ो आंदोलन आदि द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन को क्रांतिमय तथा पूर्ण सक्रिय बना दिया। कांग्रेस के सफल नेतृत्व ने भारतीयों में देशभक्ति और राष्ट्र प्रेम की भावना को जन्म दिया। समस्त देश में राष्ट्रीयता की लहर फैल गई और भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए कटिबद्ध हो गए।
भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति के संबंध में हमें क्रांतिकारियों और सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के महत्त्वपूर्ण योगदान को कदापि नहीं भूलना चाहिए। उन्होंने महान् त्याग कर अपनी जान जोखिम में डालते हुए देश की आजादी के लिए सतत् प्रयत्न किए। भारतीय प्रेस, लेखक, अध्यापक, विद्यार्थी तथा साधारण जनता ने भी राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेकर अंग्रेजों को भारत से चले जाने को विवश किया। इस प्रकार उपर्युक्त कारक भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति में सहायक रहे।
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