दहेज प्रथा - दहेज़ प्रथा पर निबंध | dahej pratha par nibandh

दहेज प्रथा

दहेज प्रथा एक प्रमुख समस्या मानी जाती है। यह आजकल काफी गम्भीर रूप धारण करती जा रही है। वैसे तो बाल विवाह, विधवा-पुनर्विवाह निषेध जैसी अन्य समस्याएँ भी हिन्दू विवाह से सम्बन्धित हैं, फिर भी दहेज ने आधुनिक युग में विकराल रूप धारण कर लिया है। इसीलिए कहा जाता है कि हिन्दुओं को जिस प्रथा से अत्यधिक क्षति उठानी पड़ती है, वह है 'दहेज प्रथा'। यह भारतीय समाज में पाया जाने वाला एक ऐसा अभिशाप है जो आज भी सरकारी एवं गैर-सरकारी प्रयासों के बावजूद एक प्रमुख समस्या बना हुआ है। दहेज प्रथा स्वयं में तो एक अभिशाप है ही, साथ ही यह अनेक अन्य समस्याओं; जैसे भ्रष्टाचार इत्यादि की भी जड़ है। 1961 ई० में ‘दहेज निरोधक अधिनियम' पारित होने के 49-50 वर्ष बाद भी यह समस्या समाप्त नहीं हो पाई है।
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हिन्दुओं में जीवन साथी के चयन का क्षेत्र अत्यन्त सीमित रहा है। इसके कारण कई बार वर मिलने में कठिनाई होती है। इतना ही नहीं, कुलीन विवाह (Hypergamy) के कारण ऊँचे कुल में लड़कों की अत्यधिक कमी होती रही है। इनके कारण वर-मूल्य की प्रथा प्रारम्भ हुई जो आज दहेज के नाम से जानी जाती है। आज तो यह समस्या इतनी गम्भीर हो गई है कि लड़का क्या करता है, इसके आधार पर विवाह से पहले उसकी कीमत लगाई जाती है। लड़की वालों से सौदा तय हो जाने के बाद ही विवाह सम्भव हो पाता है। दहेज न लाने के कारण अनेक नवविवाहित स्त्रियों को जला देने के समाचार आए दिन समाचारपत्रों में आते रहते हैं। इसके लिए उन्हें पति, सास-ससुर तथा वर पक्ष के बाकी लोगों से अनेक बातें (ताने) सुननी पड़ती हैं। उनका जीवन नरक बन कर रह जाता है। अत: आज दहेज प्रथा को समाप्त करने के लिए सरकार या जागरूक नागरिक विशेष रूप से प्रयत्नशील हैं। परन्तु इस दिशा में अभी काफी कुछ करना बाकी है।

दहेज का अर्थ एवं परिभाषाएँ

दहेज का अर्थ सामान्यत: उस राशि, वस्तुओं या सम्पत्ति से लगाया जाता है जिसे कन्या पक्ष विवाह के अवसर पर वर पक्ष को प्रदान करता है। अंग्रेजी भाषा के नवीन वेब्स्टर शब्दकोश में इसे इसी अर्थ में परिभाषित किया गया है, अर्थात्-“दहेज वह धन, वस्तुएँ अथवा सम्पत्ति है जो एक स्त्री विवाह के समय पति के लिए लाती है।" नवीन एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में भी दहेज को “वह सम्पत्ति बताया गया है जो एक स्त्री अपने पति के लिए विवाह के समय लाती है।' चार्ल्स विनिक (Charles Winick) तथा मैक्स रेडिन (Max Radin) ने भी दहेज की परिभाषा उन बहुमूल्य वस्तुओं या सम्पत्ति के रूप में दी है जो वर पक्ष विवाह के समय कन्या पक्ष से प्राप्त करता है। परन्तु ये दहेज के सही अर्थ नहीं हैं। अगर माता-पिता धार्मिक परम्पराओं से प्रेरित होकर स्वेच्छा से अपनी कन्या व वर पक्ष को कुछ धन या मूल्यवान वस्तुएँ प्रदान करते हैं तो उसे दहेज नहीं कहा जा सकता।
दहेज निरोधक अधिनियम, 1961 में दहेज को इन शब्दों में परिभाषित किया गया है-“दहेज का अर्थ कोई ऐसी सम्पत्ति या मूल्यवान निधि से है जो (अ) विवाह करने वाले दोनों पक्षों में से एक ने दूसरे पक्ष को, अथवा (ब) विवाह में भाग लेने वाले दोनों पक्षों में से किसी पक्ष के माता-पिता या किसी अन्य व्यक्ति ने दूसरे पक्ष के माता-पिता या किसी अन्य व्यक्ति को विवाह के अवसर पर या विवाह से पहले या विवाह के बाद विवाह की शर्त के रूप में दी हो या देना मन्जूर किया हो।'
कानूनी रूप से दहेज का अर्थ किसी भी ऐसी सम्पत्ति अथवा मूल्यवान वस्तुओं से है जिसे विवाह की एक शर्त के रूप में विवाह से पहले, विवाह के समय, या बाद में एक पक्ष को दूसरे पक्ष के लिए देना आवश्यक होता है। दहेज को वर मूल्य (Bridegroom price) भी कहा जाता है। यह एक प्रकार से वर की कुलीनता, सम्पन्नता, शिक्षा, व्यवसाय आदि के आधार पर निश्चित किया हुआ मूल्य ही होता है।
यद्यपि उपर्युक्त विवेचन दहेज का अर्थ अधिक स्पष्ट करने में सहायक नहीं हैं, फिर भी इस से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि वर कन्या के माता-पिता के बीच रुपये-पैसे का शर्त के रूप में जो लेन-देन होता है या लड़की के माता-पिता लड़के वालों को जो धन देते हैं उसे 'दहेज' कहा जाता है। अनेक बार विवाह सम्बन्ध तय होने के अवसर पर ही दहेज की रकम भी तय कर ली जाती है। इस प्रकार दहेज में सौदेबाजी या बाध्यता का तत्त्व भी निहित होता है।

दहेज प्रथा के कारण

दहेज प्रथा जिस विकृत रूप में आज है, उस रूप में यह हिन्दू समाज के इतिहास में कभी नहीं रही है। वैदिक ग्रन्थों से यह ज्ञात होता है कि वैदिक काल में कन्या को विवाह के अवसर पर आभूषणों एवं वस्त्रों से सुसज्जित कर, कुछ धनराशि सहित पति-गृह को विदा करने की प्रथा थी। इसी तरह की प्रथा स्मृतिकाल में भी रही है। रामायण तथा महाभारत में भी दहेज प्रथा का उल्लेख मिलता है। परन्तु यह बात स्मरण रखने योग्य है कि प्राचीन भारत में दहेज प्रथा के लिए किसी पक्ष को बाध्य नहीं होना पड़ता था। व्यक्ति स्वेच्छा एवं सामर्थ्य के अनुसार ही धन, बहुमूल्य वस्तुएँ एवं सम्पत्ति वर पक्ष को प्रदान करता था। अत: प्राचीनकाल में दहेज प्रथा अपने परिष्कृत रूप में थी। इस प्रथा का स्वरूप मुस्लिम शासनकाल में काफी विकृत हो गया। इस काल में बाल विवाह, कुलीन विवाह जैसी रूढ़िग्रस्त प्रथाओं को प्रोत्साहन मिला। अन्तर्विवाह के नियमों के कारण विवाह का क्षेत्र, जो पहले ही से सीमित था, कुलीन विवाह की प्रथा ने इस क्षेत्र को और भी अधिक संकुचित कर दिया। इसके फलस्वरूप अपनी ही जाति में उच्च कुल के वरों की माँग अप्रत्याशित रूप से बढ़ गई। इसके अतिरिक्त कुछ धार्मिक विश्वासों एवं परिस्थितियों तथा कन्याओं का सम्पत्ति में अधिकार न होने के प्रभाव से दहेज प्रथा का प्रचलन हुआ।
दहेज प्रथा की उत्पत्ति के प्रमुख कारण अग्रलिखित हैं-

अनुलोम विवाह
अनुलोम विवाह के चलन से उच्च कुल के लड़कों की माँग बढ़ती गई। उच्च कुल के लड़कों के पिता ऐसी स्थिति में बड़ी-बड़ी धनराशियों की माँग करने लगे और इस प्रकार इस प्रथा का उदय हुआ।

अन्तर्विवाह
अन्तर्विवाह के नियम के कारण किसी भी कन्या का विवाह उसी की जाति अथवा उपजाति के पुरुष से होना आवश्यक था। इस कारण विवाह का क्षेत्र सीमित हो गया। एक जाति के भीतर योग्य वरों की संख्या कम हो गई। इसके कारण ‘एक अनार सौ बीमार' जैसी हालत हो गई। वरों की संख्या कम होने के कारण उनके मूल्य में वृद्धि हो गई और इस तरह दहेज प्रथा विकसित हुई।

संयुक्त परिवारों में स्त्रियों का शोषण
स्म्रतिकल तक स्त्रियों की स्थिति अत्यधिक दयनीय थी। संयुक्त परिवारों में नव-वधुओं को प्रताड़ित किया जाता था। ऐसी परिस्थिति में माता-पिता कन्या को अधिक से अधिक दहेज देने लगे ताकि उसे पति के परिवार में अधिक प्रतिष्ठा मिले। इससे प्रारम्भ में तो लाभ हुआ किन्तु आगे चलकर यह धन प्राप्त करने का संस्थागत साधन बन गया।

विवाह की अनिवार्यता
हिन्दू धर्म में कन्या का विवाह करना हर माता-पिता का एक अनिवार्य धार्मिक कृत्य बताया गया है। धार्मिक विचारों के कारण पुण्य की प्राप्ति और पाप के भय से विवाह एक अनिवार्य कृत्य हो गया है। परन्तु विवाह की यह अनिवार्यता उन कन्याओं के पिताओं के लिए समस्या बन गई जो कुरूप एवं विकलांग होती हैं। ऐसी कन्याओं से कोई पुरुष उसी स्थिति में विवाह करता है जब उसे इससे बड़ा आर्थिक लाभ हो। ऐसी कन्याओं के विवाह की समस्याओं को सुलझाने के लिए माता-पिता बड़ी मात्रा में धन देने लगे। इसी ने बाद में दहेज प्रथा का रूप ले लिया।

धन के महत्त्व में वृद्धि
वर्तमान समय में भौतिकवादी विचारधारा के कारण धन का महत्त्व बढ़ गया है। इससे दहेज प्रथा और अधिक सशक्त हो गई है। आज धन सामाजिक प्रतिष्ठा का आधार हो चुका है। इसी कारण विवाह जैसे पवित्र संस्कार को भी अर्थ-लाभ का साधन समझा जाने लगा है।

महँगी शिक्षा प्रणाली
शिक्षा के कारण दहेज का और भी अधिक प्रचलन हो गया है। शिक्षित लड़कियों के माता-पिता उन लड़कों को ढूँढते हैं जो उनकी लड़कियों से ज्यादा शिक्षित हों। उच्च शिक्षा प्राप्त लड़के ज्यादा दहेज माँगते हैं, दहेज की माँग में वृद्धि के फलस्वरूप माता-पिता प्राय: अपनी पुत्रियों का विवाह करने में समर्थ नहीं होते। अगर वे समर्थ भी हों तो वे उनका विवाह अपनी हैसियत से बाहर करते हैं और वर पक्ष पक्ष की ओर से दहेज की माँगों के रूप में उन पर लगातार दबाव पड़ता रहता है। इससे न केवल लड़कियों के विवाह की आयु में वृद्धि हुई है, अपितु दहेज प्रथा ने भयंकर रूप धारण कर लिया है। दहेज हत्याओं का बढ़ना इस भयंकर रूप का ज्वलन्त प्रमाण है। माता-पिता अपने बच्चों को उच्च शिक्षा, विशेषकर चिकित्सा तथा प्रौद्योगिक तकनीकी शिक्षा आदि, दिलाने के लिए बहुत अधिक आर्थिक व्यय करते हैं। इस शिक्षा में हजारों रुपये खर्च करने पड़ते हैं। अत: लड़के के माता-पिता उसके विवाह द्वारा इसकी क्षतिपूर्ति करने का प्रयास करते हैं ताकि खर्च की गई राशि ब्याज सहित वापस मिल जाए।

एक पापपूर्ण चक्र
दहेज एक ऐसा पापपूर्ण चक्र बन गया है जो स्वचालित है। इसी कारण इस चक्र को रोकना इतना सहज नहीं है। अधिकांश लोग अपने लड़कों के विवाह में अधिकाधिक दहेज की माँग इसीलिए करते हैं, क्योंकि उन्हें स्वयं अपनी कन्याओं के विवाह के लिए दहेज देना पड़ता है। इस प्रकार, व्यावहारिक रूप से इस प्रथा की उपेक्षा करना कठिन हो जाता है और यह चक्र अनवरत रूप से गतिमान रहता है।

दहेज प्रथा के दोष या कुप्रभाव

दहेज प्रथा वर्तमान युग की एक गम्भीर वैवाहिक समस्या है। आए दिन समाचारपत्रों में इसके कारण नव-वधुओं पर होने वाले अत्याचारों की खबरें पढ़ने को मिलती हैं। आजकल तो कुछ परिवारों में लड़के को शिक्षा केवल इसीलिए दी जाती है ताकि वह विवाह में अधिक दहेज प्राप्त कर सके। दहेज के बिना लड़की को अपनी ससुराल में आदर भी नहीं मिलता है। पहले दहेज केवल उच्च जातियों तक ही सीमित था। यदि लड़का डॉक्टर, वकील, प्रोफेसर अथवा इंजीनियर या किसी ऊंचे सरकारी पद पर होता था तो उसके लिए उसके माता-पिता अधिक दहेज की माँग करते थे। किन्तु आज दहेज निम्न जातियों में भी प्रचलित हो गया है। आज इस प्रथा में गुणों की मात्रा नगण्य है और इसके दोषों से सभी परिचित हैं। इसके प्रमुख दोष या कुप्रभाव निम्नलिखित हैं

पारिवारिक संघर्ष
दहेज प्रथा अनेक पारिवारिक संघर्षों एवं तनावों को जन्म देती है। दहेज कम मिलने पर नव-वधू को तरह-तरह के कष्ट दिए जाते हैं। उसे हर समय दहेज का उलाहना दिया जाता है। इससे नव-वधुओं में हीनता की भावना जन्म लेती है और उनका जीवन बड़ा ही कष्टदायी हो जाता है। इसके अतिरिक्त, कभी-कभी तो दहेज की राशि के लिए पिता-पुत्र एवं अन्य पारिवारिक सदस्यों के बीच झगड़े हो जाते हैं।

ऋणग्रस्तता, आत्महत्या और शिशु हत्या
मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए कन्या के विवाह के लिए दहेज की रकम जुटाना कठिन होता है। इसके लिए उन्हें बड़ी मात्रा में ऋण लेना पड़ता है और परिवार ऋणग्रस्त हो जाता है। यदि ऋण का प्रबन्ध नहीं हो पाता तो कई बार सामान्य व्यक्ति सामाजिक निन्दा के भय से आत्महत्या कर लेता है। अनेक कन्याएँ भी विवाह न हो पाने के कारण परिवार की चिन्ता का कारण बन जाती हैं। वे भी जीवन से निराश हो जाने के कारण आत्महत्या कर लेती हैं। पहले कहीं-कहीं तो कन्या के पैदा होते ही उसकी हत्या कर दी जाती थी।

बेमेल विवाह
अधिक दहेज दे सकने में असमर्थ माता-पिता अपनी योग्य, सुन्दर और गुणवान कन्या का विवाह अवगुणी, कुरूप, अपाहिज पुरुष के साथ कर देते हैं। कुछ व्यक्ति तो इस प्रथा के कारण अपनी अल्प आयु की कन्या का विवाह बूढ़ों से भी कर देते हैं। इस तरह के बेमेल विवाह जीवन में कभी भी सफल नहीं होते। ऐसे विवाह, सामान्यत: विवाह-विच्छेद व विधवा विवाह जैसी समस्याओं को और अधिक गम्भीर बना देते है।

निम्न जीवन स्तर
दहेज के कारण अनेक परिवारों का जीवन स्तर निम्न हो जाता है। अपनी कन्याओं को दहेज देने के लिए, अपनी आय का एक बड़ा भाग माता-पिता को जमा करना पड़ता है। इसके कारण परिवार का जीवन स्तर स्वत: ही निम्न हो जाता है।

विवाह का व्यापारीकरण
दहेज प्रथा ने विवाह के पवित्र आदर्शों का व्यापारीकरण कर दिया है। आज दहेज की आकांक्षा इतनी अधिक बढ़ गई है कि विवाह के पहले लड़के का मोल-भाव आदि किया जाने लगा है। यह हिन्दू विवाह के संस्कारों पर गहरी चोट है। 

बाल विवाह को प्रोत्साहन
दहेज प्रथा बाल विवाह को प्रोत्साहन देती है। इसका कारण यह है कि बाल विवाह में अधिक दहेज की माँग नहीं की जाती है। इस तरह से कन्या का बाल विवाह कर देना माता-पिता के लिए आर्थिक दृष्टि से लाभकारी होता है। 

अविवाहित लड़कियों की संख्या में वृद्धि
दहेज प्रथा के कारण अनेक लड़कियाँ अविवाहित ही रह जाती हैं। अनेक ऐसी पढ़ी-लिखी लड़कियाँ, जो परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण विवाह-सूत्र में नहीं बँध पातीं, मानसिक विक्षिप्तता का शिकार हो जाती हैं।

अनेक समस्याओं के लिए उत्तरदायी
दहेज प्रथा अनेक सामाजिक समस्याओं (यथा स्त्री शिक्षा में रुकावट, मानसिक असन्तुलन, अपराध आदि) को भी जन्म देती है। इसी प्रथा के कारण आज अनेक विवाह टूट जाते हैं। अनेक माता-पिता एवं कन्याएँ मानसिक सन्तुलन खो बैठती हैं। अनेक व्यक्ति दहेज के प्रबन्ध के लिए रिश्वत लेने लगते हैं, चोरी करने लगते हैं और अनेक अन्य बुराइयों को अपनाने लगते हैं।

दहेज प्रथा को समाप्त करने के सुझाव

दहेज के अवगुणों से यह स्पष्ट पता चल जाता है कि भारतीय समाज में दहेज एक अभिशाप या कलंक है। अत:
इसे दूर करना अत्यन्त आवश्यक है। दहेज प्रथा को समाप्त करने में निम्नांकित सुझाव सार्थक हो सकते हैं

शिक्षा का प्रसार
दहेज प्रथा को समाप्त करने के लिए आवश्यक है कि शिक्षा का व्यापक प्रसार किया जाए। शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति इस प्रथा की बुराइयों को समझ सकते हैं। शिक्षित युवक एवं युवतियाँ इस प्रथा को समाप्त करने में विशेष योगदान प्रदान कर सकती हैं।

अन्तर्जातीय एवं प्रेम विवाहों को प्रोत्साहन
अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहित करके विवाह का क्षेत्र पर्याप्त विस्तृत हो जाएगा। वरों की संख्या में वृद्धि होने से दहेज की प्रथा भी शिथिल हो जाएगी। इसके साथ ही, प्रेम विवाहों को भी प्रोत्साहन देना चाहिए क्योंकि प्रेम विवाह स्नेह के आधार पर होते हैं मुद्रा के आधार पर नहीं।

दहेज प्रथा के विरुद्ध जनमत तैयार करके
इस प्रथा के विरुद्ध जनमत तैयार किया जाना चाहिए। ऐसे परिवारों का सामूहिक बहिष्कार किया जाना चाहिए जो विवाह जैसे पवित्र बन्धन को भी एक सौदा समझते हैं। इससे दहेज के लोभी हतोत्साहित होंगे।

जीवनसाथी के चुनाव की स्वतन्त्रता
दहेज प्रथा को समाप्त करने में जीवनसाथी के चुनाव की स्वतन्त्रता भी महत्त्वपूर्ण हो सकती है। जब लड़के-लड़कियाँ एक-दूसरे के गुणों को देखकर विवाह करेंगे तो दहेज की समस्या स्वत: समाप्त हो जाएगी।

दहेज निरोधक कानूनों को प्रभावकारी बनाकर
दहेज विरोधी अधिनियमों में दहेज लेने तथा दहेज देने वाले व्यक्तियों के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था होनी चाहिए। दहेज प्रथा को समाप्त करने के लिए सर्वप्रथम 1961 ई० में एक विधेयक पारित किया गया था। इस अधिनियम के अन्तर्गत विवाह के समय दहेज की शर्त लगाना एक दण्डनीय अपराध माना गया है। दहेज प्रथा केवल मात्र कानूनों के प्रभाव से समाप्त नहीं की जा सकती। अत: इसके विरुद्ध जनमत तैयार किया जाना अति आवश्यक है।

दहेज निरोधक अधिनियम, 1961

उन्नीसवीं शताब्दी से लेकर आज तक दहेज एक गम्भीर सामाजिक समस्या बनी हुई है। भारतीय समाज सुधारकों, विभिन्न महिला संगठनों तथा अन्य समाज सेवी संस्थाओं द्वारा समय-समय पर दहेज के प्रति आवाज उठाई जाती रही है। अंग्रेजी शासनकाल में तो इसकी रोकथाम के लिए कोई भी अधिनियम पारित नहीं किया जा सका। परन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् 1961 ई० में सरकार ने लोकसभा और राज्यसभा के सामने 'दहेज निरोधक विधेयक' प्रस्तुत किया। इस विधेयक की कुछ धाराओं पर दोनों सदनों में मतभेद पैदा हो गए। अत: 9 मई 1961 को दोनों सदनों की एक संयुक्त बैठक आमन्त्रित की गई। इसमें यह निर्णय किया गया कि विवाह के अवसर पर दिए गए उपहार दहेज नहीं माने जाएंगे। परन्तु विवाह निश्चित करते समय विवाह की एक शर्त के रूप में कोई निश्चित उपहार या उपहारों की मात्रा तय करना दण्डनीय अपराध होगा। इस नियम का उल्लंघन कर जो भी उपहार या वस्तु दी जाएगी वह पत्नी की सम्पत्ति (Trust property) मानी जाएगी, जो उसे या उसके उत्तराधिकारियों को प्राप्त होगी। इस विधेयक को 22 मई 1961 को राष्ट्रपति की स्वीकृति मिली और 1 जुलाई 1961 से यह सारे भारत में लागू कर दिया गया। यह कानून मुख्य रूप से दहेज माँगने और देने पर रोक लगाता है और ऐसा करने वालों के लिए दण्ड की व्यवस्था करता है। इसकी धारा 3 के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति दहेज लेता है या देता है या लेने देने में मदद करता है तो वह अपराधी है। उसे 5 हजार रुपये जुर्माना और 6 माह का कारावास या दोनों दण्ड दिए जा सकते हैं। धारा 4 के अनुसार, यदि वर या कन्या के माता-पिता या संरक्षक या प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कोई व्यक्ति दहेज माँगता है तो उसे भी दण्ड दिया जा सकता है। धारा 5 के अनुसार, दहेज के लेन-देन से सम्बन्धित किसी भी प्रकार के समझौते को गैर-कानूनी माना गया है। धारा 7 के अनुसार, दहेज से सम्बन्धित लिखित शिकायत प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट की अदालत में एक वर्ष के अन्दर-अन्दर देने पर ही उस पर विचार किया जाएगा।
इस कानून का अधिक प्रभाव नहीं पड़ा है। कुछ कमियों के कारण यह असफल ही रहा है। इन कमियों में विवाह के समय दी जाने वाली वस्तुओं को उपहार मानना, केवल लिखित शिकायत पर ही कार्यवाही होना, विवाह के एक वर्ष पश्चात् दहेज सम्बन्धी शिकायतों के बारे में कोई कार्यवाही न होना, दण्ड की समुचित व्यवस्था न होना इत्यादि प्रमुख रही हैं। यह एक प्रकार से दहेज की समस्या को रोकने में असमर्थ रहा है। इसीलिए उड़ीसा, बिहार, पश्चिम बंगाल, हरियाणा, पंजाब और हिमाचल प्रदेश की राज्य सरकारों ने इसमें संशोधन करके इसे अधिक प्रभावशाली बनाने का प्रयास किया है। केन्द्रीय सरकार ने भी 1984 ई० में ‘दहेज निरोधक (संशोधन) कानून' पारित किया गया जो 2 अक्टूबर, 1985 ई० को भारत में लागू हुआ। इसमें जुर्माने की राशि 10,000 रुपये तथा कारावास की अवधि दो वर्ष कर दी गई। पुन: 1986 ई० में हुए संशोधन द्वारा यह राशि 15,000 रुपये कर दी गई है तथा कारावास की अवधि पाँच वर्ष हो गई है। साथ ही इसे गैर-जमानती अपराध भी बना दिया गया है। यदि सामान्य परिस्थितियों के अतिरिक्त विवाह के सात वर्ष के अन्दर वधू की मृत्यु हो जाती है तो पति एवं उसके परिवार को दहेज माँगने के अपराध में सजा भी मिल सकती है। परन्तु इससे दहेज के कारण होने वाले अत्याचार किसी भी रूप में कम नहीं हुए हैं अत: ‘दहेज निरोधक अधिनियम' को और अधिक सशक्त बनाने एवं साथ ही कठोरता से लागू करने की आवश्यकता है।
यद्यपि संशोधन अधिनियम भी दहेज की बुराई को समाप्त नहीं कर पाए हैं, फिर भी कुछ लोग दहेज लेने से डरने लगे हैं। वास्तव में, दहेज; हिन्दू विवाह से सम्बन्धित एक प्रमुख समस्या है। यह हमारे समाज का एक ऐसा कलंक है जो हजारों-लाखों वधुओं की हत्या के लिए उत्तरदायी है; अत: इसे समाप्त किए जाने की आवश्यकता है। आज सबसे बड़ी चुनौती शिक्षित एवं अशिक्षित दोनों प्रकार के लोगों में दहेज के विरुद्ध जनमत निर्माण करने की है। इसमें स्वयं लड़कियों तथा लड़कों में चेतना का होना अनिवार्य है, ताकि वे स्वयं आगे आकर इसका विरोध कर सकें। शिक्षित लड़के लड़कियाँ यदि अपने-अपने माँ-बाप को बिना दहेज के विवाह हेतु राजी कर लें तो काफी सीमा तक इस समस्या का समाधान हो सकता है। परन्तु अभी तक इस प्रकार की चेतना विकसित नहीं हो पाई है। ऐसा देखने में आया है कि उच्च शिक्षा प्राप्त वर के माता-पिता अधिक दहेज की माँग करते हैं। ऐसा लगता है कि वे लड़के पर हुई पढ़ाई आदि का खर्चा ब्याज सहित वसूल करना चाहते हैं। आज समय की यही माँग है कि शिक्षित युवाओं को इस कुरीति को समाप्त करने हेतु महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी।

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