भूमिका
अकबर की अनेक मनौतियों, अनेक संतों के आशीर्वाद और ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह की नंगे पैर पैदल यात्रा के फलस्वरूप 13 अगस्त 1569 ई. को अकबर की कछवाहा रानी मरियम उज्जमानी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम शेख मुहम्मद सलीम रखा गया। अकबर उसे शेखू बाबा ही कहता था। अकबर के अन्य सभी पुत्र युवावस्था में ही चल बसे थे, अतः सलीम का बड़े लाड़-प्यार से पालन-पोषण हुआ। सलीम को फारसी, तुर्की, अरबी, गणित, हिन्दी, इतिहास, भूगोल तथा अन्य उपयोगी शास्त्रों का सम्यक् ज्ञान देने के लिए अनेक योग्य आचार्य नियुक्त किये गये, परन्तु इन सभी आचार्यों में अब्दुर्रहीम खानखाना ने उसके मस्तिष्क पर अमिट छाप लगायी। साथ ही उसकी सैनिक शिक्षा पर भी ध्यान दिया गया। 1581 ई. में उसे काबुल अभियान का नेतृत्व भी सौंपा गया था और उसे शासन प्रबंध की भी शिक्षा दी गई। सोलह वर्ष की आय में उसका विवाह आमेर के राजा भगवानदास की पुत्री मानबाई से कर दिया, जो उसकी ममेरी बहन भी थी। राजकुमार खुसरो इसी दाम्पत्य की देन था। खुसरों के पितृ-भक्ति विहीन व्यवहार से दुखी होकर मानबाई ने 1604 ई. में आत्महत्या कर ली थी। मानबाई के जीवनकाल में ही सलीम ने अन्य रमणियों से विवाह कर लिया था जिसमें जोधपुर के मोटा राजा उदयसिंह की पुत्री जोधाबाई का नाम विशेष उल्लेखनीय है।
अल्पायु में ही उसने सुरापान आरम्भ कर दिया तथा पिता के लाड-प्यार ने उसे अत्यधिक विलासी भी बना दिया था। सलीम ने अपने पिता की मृत्यु के पूर्व ही राजसत्ता प्राप्त करने का प्रयत्न किया था। अतः अकबर ने खुसरो को अपना उत्तराधिकारी बनाने पर विचार करने लगा। इससे दरबार में दो दल बन गये खुसरों के मामा मानसिंह और ससुर मिर्जा अजीज कोका ने खुसरो का समर्थन किया, किन्तु उनके अनुयायी अल्प संख्या में थे। अतः उनकी योजना असफल हो गयी।
सलीम-पक्ष के अमीर सलीम के अवास पर एकत्र हुए और उन्होंने सलीम से आश्वासन लिया कि वह इस्लाम की रक्षा करेगा और खुसरों एवं उसके समर्थकों को क्षमा कर देगा। सलीम ने इन अमीरों की बात स्वीकार कर ली। इस प्रकार सलीम का सिंहासनारोण सुनिश्चित हो गया। तत्पश्चात् अकबर की मृत्यु के आठवें दिन 3 नवम्बर 1605 को सलीम, नुरुद्दीन मुहम्मद जहांगीर बादशाह गाजी की उपाधि धारण कर मुगल तख्त पर बैठा। इस अवसर पर अनेक कैदी मुक्त किये गये और उसके नाम के सिक्के ढलवाये गये। उसने अपने विरोधियों को भी क्षमा कर दिया।
जहांगीर की शासन-नीति-जहांगीर ने खुसरों के समर्थकों को क्षमा कर दिया था। अतः उसने अधिकांश अधिकारियों को उनके पदों पर बनाये रखा और अपने कृपा-पात्रों को भी ऊंचे-ऊंचे पद दिये। उसने निम्न बारह नियमों द्वारा अपनी शासन-नीति घोषित की-
- तमगा नामक महसूल जिसमें मर बहरी (नदी मार्ग की चुंगी) तथा जकात महसूल सम्मिलित थे, समाप्त कर दिये गये।
- उसने सड़कों के किनारे सराय, मस्जिद और कुओं के निर्माण के आदेश दिये।
- व्यवसायियों की जानकारी और स्वीकृति के बिना उनके सामान की गांठें खोलना बंद कर दिया गया।
- मृत्यु के पश्चात् किसी व्यक्ति की सम्पत्ति उसके उत्तराधिकारी को प्राप्त होने की व्यवस्था की । यदि उसका कोई उत्तराधिकारी न हो तो वह सम्पत्ति राज्य पदाधिकारियों के संरक्षण में जमा कर उसका प्रयोग सार्वजनिक भवनों के निर्माण और जीर्णोद्धार के लिये की जाय।
- मद्य तथा अन्य मादक वस्तुओं का निर्माण एवं क्रय निषिद्ध कर दिया गया।
- राजकीय कर्मचारियों को किसी के घर पर बलपूर्वक अधिकार करने की मनाही कर दी गई।
- नाक या कान काटने के दण्ड को अवैध कर दिया।
- किसानों की भूमि बलपूर्वक लेने की मनाही कर दी गई।
- सम्राट की आज्ञा के बिना कोई जागीरदार अथवा परगाधीश अपने ही क्षेत्र में किसी व्यक्ति के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित न करें।
- दीनों और असहायों की चिकित्सा के लिए सरकारी औषधालयों की स्थापना की गई।
- साल के कुछ दिनों में पशु हत्या अवैध मानी गई। सप्ताह के दो दिनों भी-गुरुवार को, जब जहांगीर का राज्याभिषेक हुआ था और रविवार को, जो अकबर का जन्म दिन था, पशु-हत्या बंद रखी जाती थी।
- अकबर के समय के समस्त कर्मचारी, जागीरदार और मनसबदार अपने अपने पदों पर पुनः प्रतिष्ठित कर दिये।
यमुना तट पर एक स्थान से आगरे के किले के शाह बुर्ज तक घण्टियां लगी हुई एक स्वर्ण जंजीर लगा दी गई, जिससे कोई फरियादी बिना किसी मध्यस्थ के सीधा सम्राट से फरियाद कर सकता था।
जहांगीर ने मानसिंह और अजीत कोका को भी क्षमा कर, उन्हें अपने पद से नहीं हटाया। परन्तु उनकी सत्ता अकबर के समय जैसी नहीं रही। अपने कृपा-पात्रों को, जिनमें कोई विशेष योग्यता नहीं थी, अच्छे-अच्छे पद प्रदान किये। मुहम्मद शरीफखां को प्रधानमंत्री बनाया गया तथा ओरछा के वीरसिंह बुंदेला को तीन हजारी मनसब और राजा की पदवी प्रदान की। नवनियुक्त पदाधिकारियों में दो विशेष रूप से योग्य पात्र थे। एक था नूरजहां का पिता ग्यासबेग, जो दीवान के पद पर नियुक्त हुआ और उसे इतमादउद्दौला की उपाधि दी गई। दूसरा जमानबेग को महावत खां की उपाधि व डेढ़-हजारी मनसब दी गई।
खुसरो का विद्रोह-जहांगीर के राज्यारोहण के कुछ महीनों के भीतर ही उसके ज्येष्ठ पुत्र खुसरों ने अपने पिता के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। अकबर के अंतिम दिनों में खुसरों को बादशाह बनाने का असफल षड़यंत्र रचा गया था। अतः जहांगीर के राज्यारोहण के बाद भी खुसरों के मन में बादशाह बनने की लालसा बनी रही। जहांगीर ने भी उसके गत व्यवहार के लिए, यद्यपि क्षमा कर दिया था किन्तु उसके मामा मानसिंह के बंगाल जाते ही जहांगीर ने उसे बंदी बना लिया। अपने पिता के इस व्यवहार से वह ऋद्ध हो उठा और उसने राजसत्ता हथियाने का निश्चय किया। 6 अप्रैल 1606 ई. को संध्या के समय सिकन्दरे में अकबर की दरगाह देखने के बहाने वह अपने 350 अश्वारोहियों के साथ आगरा से निकल आया। रास्ते में हुसैनबेग बदख्शी अपने 300 सवारों के साथ उससे आ मिला। धीरे-धीरे उसके अनुयायियों की संख्या 12,000 तक पहुंच गई। तदनन्तर उसने एक राजकीय रक्षा दल पर आक्रमण कर एक लाख रुपये लूट लिये। दिल्ली होते हुए वह लाहौर पहुंचा, जहां इस प्रांत का दीवान अब्दुर्रहमान भी उससे आ मिला। तरनतारन में उसने सिक्खों के पांचवे गुरु अर्जुनसिंह का आशीर्वाद प्राप्त कर लाहौर पहुंचा। खुसरो ने लाहौर लेने का भी असफल प्रयास किया। इसी समय जहांगीर एक सेना लेकर लाहौर आ पहुंचा। खुसरों ने अपनी सेना की एक टुकड़ी लाहौर के घेरने में छोड़ स्वयं दस हजार सेना लेकर शाही सेना का मुकाबला करने आगे बढ़ा। जहांगीर ने शांतिपूर्ण उपायों द्वारा अपने पुत्र को अनुकूल लाना चाहा, लेकिन विफल रहने पर भैरोवाल के मैदान में दोनों के बीच युद्ध हुआ। खुसरो बुरी तरह पराजित होकर भाग खडा हुआ। चिनाव नदी पार करते समय खसरो अपने साथियों सहित पकड़ लिया गया। 1 मई 1607 ई. को हथकड़ी डालकर पहले खुसरों को सम्राट के समक्ष लाया गया। विद्रोही शहजादे की सम्राट ने कटु भर्त्सना की और उसे बंदीगृह में डालने का आदेश दे दिया। उसके साथियों को कठोर यंत्रणाएं देकर मार डाला गया।
खुसरो को लाहौर जाते समय गुरु अर्जुनसिंह ने आशीर्वाद दिया था, अतः सम्राट की दृष्टि में वह भी अपराधी था। किवदंती है कि सम्राट ने गुरु अर्जुन पर दो लाख रुपये का दण्ड लगाया, जिसे गुरु ने देने से इंकार कर दिया। अतः उन्हें मृत्यु दण्ड दे दिया गया। जहांगीर का यह कार्य सर्वथा अनुचित था, क्योंकि उसने गुरु अर्जुनसिंह जैसे धार्मिक व्यक्ति के साथ साधारण अपराधी जैसा व्यवहार किया था। सिक्ख विचार परम्परा के अनुसार जहांगीर ने अपने हटधर्मी के आवेश में आकर ही यह दुष्कृत्य किया था। सम्राट ने एक माह के अन्दर समस्त उपद्रव को शांत कर दिया। परन्तु इस विद्रोह के परिणाम अच्छे नहीं हुए। इससे दूसरे विद्रोहों को प्रोत्साहन मिला। बीकानेर का राजा रायसिंह ने राजकीय सत्ता का उल्लंघन कर विद्रोह कर दिया। सम्राट ने जगन्नाथ कछवाहा को उसके विरूद्ध भेजा, जिसने रायसिंह को परास्त कर उसे दरबार में पेश किया। जहांगीर ने उसे क्षमा कर दियां इसी प्रकार बिहार के एक जागीरदार संग्राम ने भी अपना सिर उठाया, लेकिन बिहार के सूबेदार जहांगीर कुलीखां ने उसे परास्त कर दिया। खुसरों के विद्रोह से देश की अशांति का सर्वाधिक प्रभाव फारस के शाह पर पड़ा, जिसने कन्धार विजय हेतु अपने कदम बढ़ये थे।
नूरजहां का शासन में उत्कर्ष (1611-1627 ई.)
प्रारम्भिक जीवन-जहांगीर के शासनकाल की सबसे महत्वपूर्ण घटना उसकी नूरजहां से शादी तथा नूरजहां का शासन में उत्कर्ष समझा जाता है। नूरजहां, जिसका बचपन का नाम मेहरुन्निसा था, एक फारसी सरदार ग्यासबेग की लड़की थी। उसके जन्म एवं बचपन के दिनों का इतिहास मतभेदों से पूर्ण है। सामान्यतः कहा जाता है कि ग्यासबेग के दिन जब कठिनाई से घिरे हुए थे, तो वह अपने परिवार के लिए अपनी आजीविका की खोज में भारत की ओर बढ़ा। इसी यात्रा के बीच मेहर का जन्म कन्धार में हुआ।
दिल्ली आने पर उसका परिचय अकबर से हुआ और अकबर ने उसे एक साधारण-सी नौकरी दे दी। अपनी योग्यता, स्वामिभक्ति एवं बुद्धि के बल पर वह धीरे-धीरे पदोन्नति करता गया और अंत में 1595 ई. में काबुल का दीवान बन बैठा। इन्ही दिनों मेहर अपने यौवनावस्था में पहुंच रही थी। वह एक अपूर्व सुन्दरी एवं स्त्री-सुलभ गुणों से सम्पन्न नवयौवना थी जो आसानी से शाहजादा सलीम के दिल को जीतने में सफल रही। कहा जाता है कि सलीम ने उसके साथ शादी करने की इच्छा अकबर से व्यक्त की। किन्तु, अकबर एक साधारण लड़की के साथ सलीम की शादी कर अपने शाही खानदान के ऊपर धब्बा नहीं लगाना चाहता था। बात को बढ़ते देख उसने मेहर की शादी एक फारसी युवक अली कली खा (शेर अफगान) से करवा दी। बाद में अली कुली खां को बंगाल का फौजदार बना दिया गया। सलीम के मस्तिष्क से मेहर का नशा नहीं उतर पाया था और जब वह दिल्ली का सम्राट बना तो उसने शेर अफगान की हत्या करवा दी और मेहरुन्निसा से शादी कर ली।
नूरजहां और जहांगीर का सम्बन्ध
नूरजहां और जहांगीर के आपसी सम्बन्धों को लेकर इतिहासकारों के बीच काफी मतभेद रहा है। डॉ. बेनी प्रसाद के मत में नूरजहां और जहांगीर के बीच किसी तरह का पूर्व प्रणय सम्बन्ध नहीं था और शादी के पहले जहांगीर ने नूरजहां को देखा भी नहीं था। वे इस तथ्य को भी मानने से इंकार करते हैं कि शेर अफगान की हत्या में जहांगीर का कोई हाथ था। अपने विचारों के पक्ष में वे कुछ तर्क उपस्थित करते हैं तत्कालीन फारसी साहित्य में सलीम और मेहर की शादी के पूर्व प्रणय सम्बन्धों का जिक्र नहीं किया गया है, विदेशी वृत्तान्तों में इसका जिक्र नहीं मिलता है कि जहांगीर का हाथ शेर अफगान की हत्या में था; नूरजहाँ एक श्रेष्ठात्मा एवं चरित्रनिष्ठा नारी थी, अतः वह अपने पति के हत्यारे से शादी नहीं कर सकती थी, आदि । इस तरह से डॉ. प्रसादअन्यान्य तर्फ प्रस्तुत करते हैं यह साबित करने के लिए कि जहांगीर और नूरजहां के बीच किसी तरह का पूर्व-प्रणय सम्बन्ध नहीं था और जहांगीर ने शेर अफगान की हत्या नहीं करवायी थी। उनके विचार में सारी बातें अभिरंजित करके कही गयी हैं। इसके विपरीत डॉ. ईश्वरी प्रसद का मत है कि इन दोनों के बीच शादी के पूर्व -प्रणय सम्बन्ध रहा था और शेर अफगान की हत्या में निश्चित रूप से जहांगीर का हाथ था। अपने मत की पुष्टि में वे भी अनेक तर्क पेश करते हैं, यथा शेर अफगान के ऊपर राजद्रोह का कोई गंभीर आरोप न होने पर भी उसके विरूद्ध कुतुबुद्दीन को भेजा जाना और उसे मौत की नींद सुलाना, जहांगीर की अनैतिक लिप्सा का प्रतीक है, जहांगीर जानबूझ कर अपनी आत्मकथा में शादी के तीन वर्ष बाद नूरजहां का जिक्र करता है, शेर अफगान के हत्या के बाद नुरजहां और उसकी लड़की को शाही महल में रखने का कोई औचित्य नहीं है जब कि नूरजहां के पिता एवं भाई मुगल दरबार में शक्तिशाली अधिकारी थे, अतः नूरजहां को अपने पिता अथवा भाई के घर भेजा जाना चाहिए था। डच लेखक डी-लायट के वर्णन के द्वारा इस मत की पुष्टि, आदि । इन तर्को तथा आधुनिक शोधों के आधार पर सारी घटनाओं का एक निष्पक्ष अवलोकन करने पर हमारा झुकाव डॉ. ईश्वरी प्रसाद की ओर होता है, डॉ. बेनी प्रसाद की ओर नहीं। यह ठीक है कि तत्कालीन फारसी ग्रंथों में हम इस घटना का कोई वर्णन नहीं पाते हैं, किन्तु प्रसिद्ध डच लेखक डी-लायट ने अपनी रचनाएं "भारत वर्णन ' एवं 'भारतीय इतिहास के कुछ अंश में जहांगीर के शहजादा काल में नूरजहां के प्रति आसक्त होने का उल्लेख किया है और शेर अफगान की हत्या में भी उसके हाथ पाये हैं यह एक महत्वपूर्ण तर्क है जिसके आधार पर हम डॉ. ईश्वरी प्रसाद का समर्थन कर सकते हैं। एक विदेशी लेखक की उक्तियों को जिसका सम्राट के प्रति किसी प्रकार का पक्षपाती होने का प्रश्न नहीं उठता, इस संदर्भ में आसानी से आंखों से ओझल नहीं किया जा सकता है। जहांगीर के व्यक्तित्व के ऊपर एक नजर डालने से भी इसकी सत्यता की पुष्टि हो जाती है। सम्राट बनने के पूर्व का सलीम एक कोमल हृदय का व्यक्ति था और तीन चार अवसरों पर उसने प्रणय-लीला का परिचय दिया है। अतः उसकी नूरजहां की ओर झुकाव, जो निश्चित रूप से एक अति आकर्षक व्यक्तित्व एवं अति सुन्दर रूप से स्वामिनी थी, अस्वाभाविक नहीं लगता है। इस प्रकार यह बात आसानी से मान ली जा सकती है कि जहांगीर एवं नूरजहां के बीच पूर्व प्रणय सम्बन्ध था, और तब इस बात को मान लेना भी आसान हो जाता है कि शेर अफगान की हत्या में जहांगीर का सक्रिय हाथ रहा होगा।
नूरजहां का चरित्र
शेर अफगान की हत्या के बाद नूरजहां एवं उसकी बेटी लाडली बेगम को 1607 ई. में शाही महल में लाया गया था और उसे जहांगीर की विमाता सलीम सुल्तान को देखभाल का काम सौंपा गया। जहांगीर ने 1611 ई. में उसके साथ विधि वित शादी कर ली। अब तक जहांगीर की अवस्था 42 वर्ष की और नूरजहां की अवस्था 34 वर्ष की हो चुकी थी। किन्तु अभी भी वह असीम सौन्दर्य की प्रतिमा-सी प्रतीत होती थी और भविष्य में भी उसने अपने इस लावण्य को सुरक्षित रखा। उसका स्वास्थ्य अत्यन्त उत्कृष्ट था और उसमें प्रचूर मात्रा में शारीरिक शक्ति थी। श्रृंगार, आभूषण एवं भड़कीले वस्त्रों में उसकी आभा और भी अधिक निखर उठती थी। शारीरिक सौन्दर्य के अतिरिक्त उसमें हृदय एवं मस्तिष्क का आकर्षण भी पर्याप्त मात्रा में था। वह तीक्ष्ण मेधावी एवं चतुर महिला थी। शिक्षा में भी वह अपनी सानी रखती थी और कविता, संगीत एवं चित्रकला में उसे विशेष अभिरूचि थी। वह फारसी में कविताओं की रचना भी करती थी। उसमें असाधारण आविष्कार की क्षमता भी विद्यमान थी। फलतः वेशभूषा, साज-सज्जा, आभूषण तथा शृंगार के क्षेत्र में उसने नये-नये अनुसंधान किये। उसके द्वारा प्रचलित वेशभूषा, शृंगार-प्रसाधन अलंकार आदि का प्रयोग प्रभावशाली ढंग से औरंगजेब के काल तक मुगल दरबार में बना रहा। उसके पुस्तकालय में अनुपम एवं अमूल्य पुस्तकों का संग्रह था, जिसमें से एक -दो आज भी पटना के खुदाबख्श खां (ओरिएंटल) लाइब्रेरी में संग्रहित है। स्वभाव से वह एक अच्छी प्रकृति की महिला थी और उसके हृदय में असीम उदारता थी। निर्धनों, यतीमों, परित्यक्ताओं, विधवाओं और विद्वानों के प्रति उसके हृदय में विशेष अनुराग था और समय-समय पर वह उन्हें आर्थिक अनुदार आदि भी दिया करती थी। जहांगीर की आत्मकथा में हमें इस बात की अनुभूति होती है कि अनाथ कन्याओं के विवाह का व्यय तथा प्रतिदिन प्रचुर मात्रा में दान देने का उसने नियम बना रखा था। उसके इन चारित्रिक गुणों का प्रभाव देश और समाज के लिए निश्चित रूप से हितकर साबित हुआ था। किन्तु, उसके चरित्र में कुछ अन्य महत्वपूर्ण विशेषताएं भी थीं। उसमें पुरुषोचित मेधा, असीम महत्वाकांक्षा एवं शक्ति के प्रति लिप्सा थी जिसका प्रभाव तत्कालीन राजनीतिक एवं प्रशासनिक व्यवस्थाओं के ऊपर अहितकर साबित हुए। वह एक अत्यन्त महात्वाकांक्षी महिला थी और उसमें शासन के सारे अधिकारों को अपने हाथों में केन्द्रीभूत करने की उत्कृष्ट लिप्सा थी। वह शक्ति-प्रिया थी तथा किसी भी व्यक्ति के यहां तक कि अपने पति की सत्ता से भी पराभूत नहीं होना चाहती थी। ठीक इसके विपरीत उसके संसर्ग में जितने भी लोग आते वह अपनी सत्ता से पराभूत करने की इच्छा रखती थी। राजनीति एवं शासन की गंभीर समस्याओं के साथ निबटना उसे खुब आता था। उसमें शौर्य एवं धैर्यनिष्ठा की भी कमी नहीं थी तथा गंभीर-से-गंभीर परिस्थितियों में भी उसने अपना संतुलन नहीं खोया।
जहांगीर के साथ शादी
प्रारम्भ में नूरजहां जहांगीर की हृदयेश्वरी बनी रही। शादी के बाद जहांगीर ने ही उसे नूरजहां (Light of the world) की उपाधि से विभूषित किया। जहांगीर के ऊपर उसका असीम प्रभुत्व था। जहांगीर के द्वारा 1613 ई. में उसे उसका दबदबा कायम हो गया। शक्ति की उपासिका नूरजहां ने न सिर्फ सभी राजकीय मामलों में हाथ बंटाना प्रारम्भ किया, वरन् सम्पूर्ण राजसत्ता को अपने हाथों में लेने के लिए वह मचल उठी। परिस्थितियों ने, जहांगीर के गिरते हुए स्वास्थ्य एवं उसकी विलास-प्रियता ने नूरजहां को एक अच्छा मौका दिया। नूरजहां अब साम्राज्य की संयुक्त शासिका बन गयी थी। कुछ सिक्कों पर तो उसका नाम भी खुदा जाने लगा। शाही फरमानों पर भी उसका नाम जहांगीर के नाम के साथ आने लगा। सरकारी दस्तावेजों पर भी वह हस्ताक्षर करने लगी। यही नूरजहां का प्रमुख काल था। इसे हम सुविधा के लिए दो भागों में विभाजित कर सकते हैं प्रथम 1611 ई. से लेकर 1622 ई. तक तथा दूसरा 1622 ई. से 1627 ई. तक का काल जब शासन में नूरजहां की एकमात्र तूती बोलती थी।
नूरजहां के प्रभुत्व का विकास
सामान्यतः ऐसा विश्वास किया जाता है कि अपने विवाह के कुछ वर्षों के भीतर नूरजहां ने जहांगीर को अपने हाथें की कठपुतली बना लिया और उसने एक दल का संगठन किया तथा राज्य शासन की पूरी बागडोर अपने हाथों में ले ली। नूरजहां के इस दल को नूरजहां गुट अथवा Nuriahan Junta के नाम से पुकारा गया। इस दल में उसके अतिरिक्त उसके पिता, भाई, माता, उसकी भतीजी का पति, शाहजादा खुर्रम (शहजहां) एवं अन्य विश्वासपात्र सम्मिलित थे। उसने अपने पिता गयासुद्दीन को प्रधानमंत्री एवं भाई आसफ खां को अर्थमंत्री के पद पर आरूद्ध किया। आसफ खां का दामाद खुर्रम को ऊंचे मनसबदारी दिये गये और उसे अनेक अभियानों में मुगल सेना के नेतृत्व का भार सौंपा गया। नूरजहां की माता अस्मत बेग को राज्य का प्रधान परामर्शदात्री नियुक्त किया। नूरजहां के राजनीतिक दल के आधर स्तम्भ यह ही व्यक्ति थे और इन्हीं के सहयोग से उसने मनमाने ढंग से अपने प्रभुत्व काल में प्रारंभिक वर्षों में शासन किया। अपने प्रभुत्व के दूसरे चरण में जबकि नूरजहां शासन में शक्तिशालिनी रही, उसके गुट में दरार पैदा हो गया। नूरजहां की लड़की लाडली बेगम की शादी जहांगीर के छोटे लड़के शहरयार से हो गयी थी और अब वह खुर्रम के स्थान पर उसे मुगल गही पर बिठाना चाहती थी। किन्तु शहरयार एक अयोग्य और चरित्रहीन व्यक्ति था जिसे लोग 'नशुदनी' कहकर संबोधित किया करते थे। नूरजहां के इस रूख से खुर्रम का विचलित होना स्वाभाविक था। इन्हीं कारणों से आसफ खां जो खुर्रम का श्वसुर था, ने भी नूरजहां के गुट का बहिष्कार कर दिया। उसकी माता और पिता की भी मृत्यु हो चुकी थी। इस तरह से अब नूरजहां का गुट बिखर गया था। अतः इस काल में नरजहां की शक्ति में हास भी हुआ।
उल्लेखित तत्वों को आज के इतिहासकार पूर्णरूपेण स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। उनकी मान्यता है कि राजनीति एवं प्रशासन के संदर्भ में नूरजहां के नाम का अनुचित लाभ उठाया गया है। उसने केवल एक बार महावत खां के विद्रोह के विरुद्ध युद्ध में सक्रिय भाग लिया था और वह भी अपने पति को छुड़ाने के उद्देश्य से। डॉ. आर.पी. त्रिपाठी के शब्दों में, "खुर्रम अथवा महावत खा के विद्रोह या तथाकथित उत्तराधिकार के संघर्ष में नरजहां का उत्तरदायित्व कल्पना की उड़ान तथा लोकप्रिय पौराणिकता है और यह उसी प्रकार काल्पनिक है जैसाकि शेर अफगान की मृत्यु में जहांगीर का उत्तरदायित्व।" अनजाने ही वह जहांगीर के काल की राजनीतिक हलचल का साझेदार बन गयी। अपने परिवार के सदस्यों के प्रति उसमें कमजोरी थी। इसका लाभ उठाकर उसके भाई आसफ खां ने शासन पर अपना प्रभाव काफी बढ़ा लिया। उसने स्वयं अपने तथा अपने दामाद शाहजहां (खर्रम) के स्वार्थों के लिए उसके नाम का गलत लाभ उठाया। चूंकि शहरयार उसका दामाद था अतः उसे लेकर नूरजहां पर गलत आरोप लगाये गये। यह मानना अनुचित होगा कि नूरजहां के पिता तथा भाई का प्रभाव केवल उसके चलते बढ़ा। वस्तुतः उनके उत्कर्ष में उनकी व्यक्तिगत योग्यता का अधिक महत्व था। खुर्रम एवं महावत खां के विद्रोह भी नूरजहां के कारण नहीं हुए थे। इनके पीछे आसफ खां के हाथ थे। पुनः जहांगीर प्रशासन में कभी निष्क्रिय नहीं हुआ। ऐसी हालत में जहांगीर के शासन काल की राजनीतिक हलचलों के लिए नूरजहां को दोषी ठहराना अनुचित होगा।
नूरजहां के प्रभुत्व का प्रभाव
नूरजहां के प्रभुत्व के प्रभाव अच्छे और बुरे दोनों हुए। उसके प्रभाव जहांगीर के ऊपर तथा तत्कालीन समाज एवं संस्कृति के ऊपर अच्छे कहे जा सकते हैं।
- यह नूरजहां के प्रभाव का ही फल था कि जहांगीर ने शराब तथा अफीम की मात्रा में कटौती कर दी ओर उनके घातक परिणामों से बच सका, जिसके चलते उसके दो छोटे भाई अपने प्राणों से हाथ धो बैठे थे।
- इसके अतिरिक्त राज्य की सारी व्यवस्थाओं को अच्छे ढंग से संभाल कर उसने जहांगीर को शासन की कठिनाइयों और चिंताओं से मुक्त किया। फलस्वरूप उसे अपनी आत्मकथा को लिखने का अवकाश मिल गया। जहांगीर की यह रचना अपनी सूक्ष्म विस्तारों के कारण तत्कालीन भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण स्रोत समझा जाता है। यह कृति उसकी साहित्यिक महानता का एक अद्वितीय नमूना है।
- नूरजहां ने जहांगीर का ध्यान चित्रकारी जैसी ललित कलाओं की ओर भी आकष्ट किया, जिसके फलस्वरूप उसका शासनकाल चित्रकला के क्षेत्र में काफी विकास हुआ।
- नूरजहां ने अनेक विद्वानों एवं शिक्षकों को शाही संरक्षण दिया, नये स्कूलों को प्रारम्भ किया तथा अनेक पुराने स्कूलों को आर्थिक अनुदान दिया।
- साम्राज्य की जनता के लिए इसके परिणाम अवश्य ही हितकर साबित हुए होंगे। उसकी उदारता एवं सहृदयता भी समाज के लिए हितकर साबित हुए होंगे। दीन-दुःखियों, निर्धनों, यतीमों, परित्यक्ताओं एवं विधवाओं को वह प्रतिदिन दान देती थी और गरीब कन्याओं का विवाह भी सम्पन्न करवाती थी। उसके ये कार्य निश्चित रूप से सराहनीय कहे जा सकते हैं।
- वह अपने काल की सिर्फ असीम सुन्दरी ही नहीं, वरन् साम्राज्य की पूजारिन थी। इन क्षेत्रों में उसने तरह-तरह के आविष्कार किये। उसने जहांगीर के साथ अपनी शादी के अवसर पर एक अत्यन्त सुन्दर पोशाक का निर्माण करवाया, जिसे 'नूरमहली' के नाम से पुकारा जाता है। यह पोशाक मुगल हरम में वर्षों काफी लोकप्रिय रही। उसने एक नये प्रकार के इत्र का भी आविष्कार किया था। फैशन के क्षेत्र में नूरजहां की देन मौलिक एवं स्थायी साबित हुई। कुछ तत्कालीन मुसलमान लेखकों ने नूरजहां को अपने काल का सौन्दर्य-साम्राज्ञी की उपाधि से विभूषित किया है।
बुरे प्रभाव
समाज, सभ्यता एवं संस्कृति के ऊपर नूरजहां के जो भी प्रभाव हितकर प्रमाणित हुए राजनीतिक एवं प्रशासनिक क्षेत्रों में उसके प्रभाव अत्यन्त धातल साबित हुए।
नूरजहां के प्रभुत्व में विकास के फलस्वरूप मुगल राज्य एवं दरबार दल-बंदी का शिकार हो गया। इसका सूत्रपात स्वयं नूरजहां ने किया था। 1611 ई से लेकर 1622 ई. तक वह प्रसिद्ध 'नूरजहां गुट' की अधिष्ठात्री रही और इसी गुट की सहायता से उसने शासन में अपना एकछत्र आधिपत्य स्थापित किया। अपने सगे-सम्बन्धियों, भाई-बन्धुओं एवं समर्थकों को उसने राज्य शासन में ऊंचे-ऊंचे पद दिये। ठीक इसके विपरीत जो उसके विरोधी थे अथवा जिनसे उसे भय था उन्हें उसने शासन से निकाल–बाहर किया।
नूरजहां की राज्य शासन में हस्तक्षेप करने की नीति के फलस्वरूप मुगल दरबार गृह कलह का केन्द्र बन गया। प्रारम्भ में नूरजहां ने खुर्रम को संरक्षण दिया। हर एक तरह से वह उसकी मदद के लिए तैयार रही थी, किन्तु बाद में उसने अपनी लड़की लाडली बेगम की शादी शहरयार से कर दी तो वह शहरयार को जहांगीर का उत्तराधिकारी बनाने का षड़यंत्र करने लगी। परिणामस्वरूप खुर्रम ने आत्मरक्षा के उद्देश्य से जहांगीर के विरूद्ध बगावत का झण्डा खड़ा कर दिया। खुर्रम के विद्रोह के लिए निश्चित रूप से नूरजहां उत्तरदायी थी। 1620 ई. में कन्धार का मुगल साम्राज्य की छत्रछाया से निकलकर ईरान के शाह के हाथों में चले जाने में भी नूरजहां की ही जिम्मेवारी थी। इसी तरह से नूरजहां की शक्तिप्रियता ने उच्च अधिकारियों को 'स्वामिभक्तिपूर्ण सेवाओं के प्रति भी उदासीन बना दिया। वह उन कर्मठ एवं स्वामीभक्ति मुगलसरदारों के प्रति भी संदेशहीन रहती थी, जिनका उसकी नीति से मतभेद रहता था। इसके फलस्वरूप आत्मसम्मानी एवं कर्मठ सरदारों और नूरजहां के बीच की खाई गहरी होती गयी और इसका एक भयंकर परिणाम यह हुआ कि महावत खां के राजभक्त, प्रतिष्ठित एवं कर्मठ व्यक्ति को भी शासन के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा खड़ा कर जहांगीर तक की बंदी बनाने के लिए विवश होना पड़ा।
उस समय मुगल दरबार घुसखोरी एवं भ्रष्टाचार का अड्डा बन गया।
जहांगीर के व्यक्तित्व पर भी उसके कुछ अहितकर प्रभाव पड़े। उसने नूरजहां के रूप-रंगों में खोकर शासन की सारी जिम्मेदारी को तिलांजलि दे दी और अब वह ऐशो-आराम में मस्त होकर नूरजहां के इशारों पर नाचने लगा। उसके चरित्र में इस तरह के पतन के लिए अवश्य ही नूरजहां दोषी थी।
अंत में यह भी कहा जा सकता है कि अनेक गुणों से सम्पन्न होने के बावजूद नूरजहां एक स्त्री थी। अतः अपनी स्त्री-सुलभ कमजोरियों के कारण वह राज्य के सभी मामलों की देखभाल अच्छे ढंग से करने में असमर्थ थी। 1627 ई. में जहांगीर की मृत्यु के साथ ही उसकी प्रभुता का अंत हो गया।
अच्छे प्रभाव
नूरजहां के प्रभाव के कुछ अच्छे परिणाम भी पड़े, जो निम्न थे-
- एलफिन्स्टन के अनुसार, "नूरजहां बड़ी कर्तव्यपरायण पत्नी थी। वह जहांगीर की देख-रेख में बड़ी रूचि लेती थी और शासन-प्रबंध का बहुत-सा काम स्वयं करती थी। उसके प्रभाव से जहांगीर ने शराब पीना कम कर दिया था।
- नूरजहां सौन्दर्यप्रेमी थी। उसने जरी, किनारी तथा लहंगों के नये फैशन का प्रचलन किया। खाफी खां के अनुसार, "नूरजहां के चलाये हुए फैशन उच्च वर्ग के लोगों में चिरकाल तक प्रचलित रहे, जबकि मलिका से पहले के फैशन केवल पिछड़ी हुई पठान जातियों में ही रह गये।"
- नूरजहां ने 500 निर्धन एवं असहाय कन्याओं के विवाह हेतु राजकोष से दहेज दिया। वह निर्धन दासियों की सहायता भी करती थी।
नूरजहां का मूल्यांकन
नूरजहां अत्यन्त सुन्दर, साहसी, उदार तथा दयालु मलिका थी। वह अपने सौन्दर्य के कारण 35 वर्ष की आयु में भी 16 वर्ष की युवती दिखायी देती थी।
सुन्दर तथा कोमल होते हुए भी वह साहसी तथा परिश्रमी थी। वह घोड़े पर सवार, होकर शेर का शिकार करती थी तथा संकटकाल में भी साहस तथा धैर्य से काम करती थी। उसने चतुरता का परिचय देते हुए जहांगीर को महावत खां की कैद से मुक्त करवाया।
नुरजहां परिवार प्रेमी थी। वह जहांगीर से बहुत प्यार करती थी तथा जहांगीर भी उससे बहुत प्यार करता था। वस्तुतः जहांगीर तथा नूरजहां का प्रेम आदर्श था।
नूरजहां बड़ी दयालु थी। उसने निर्धनों, दुःखियों तथा अनाथों की सदैव सहायता की। उसने पांच सौ कन्याओं के विवाह के लिये राजकोष से दहेज दिया था। नूरजहां शिक्षित तथा बुद्धिमती थी। वह फारसी भाषा में सुन्दर कवितायें लिखती थी। उसमें समस्याओं को सुलझाने की अद्भुत क्षमता थी, अतः दरबारी उसकी बुद्धि का लोहा मानते थे। नूरजहां ने विद्वानों को भी उदारतापूर्वक संरक्षण दिया।
नुरजहां को संगीतकला तथा चित्रकला से बड़ा प्रेम था। उसने जरी, किनारी तथा लहंगे के नये फैशन प्रचलित किये. जो काफी समय तक लोकप्रिय रहे। उसके समय में कई प्रकार की सुगंधियों वाले इत्र भी तैयार किये गये।
नूरजहां के चरित्र में कई दोष भी थे। उराके नारी अगिगान, बदला लेने की प्रवृत्ति आदि के कई दुष्परिणाग निकले। वह अत्यधिक महत्वाकांक्षी थी तथा अपनी स्वार्थसिद्धि के लिये षड़यंत्र रचने में भी हिचकती नहीं थी। वह विरोधियों एवं शत्रुओं के दमन के लिये किसी भी मार्ग को अपना लेती थी। निष्कर्ष के रूप में हम यह कह सकते हैं कि नूरजहां का प्रभाव साम्राज्य के लिये हानिकारक सिद्ध हुआ।
एक टिप्पणी भेजें